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स्वाध्याय (भाग 1 )

चिंतन के क्षण
चिंतन के क्षण
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स्वाध्याय (भाग 1 )
स्वाध्याय शब्द दो शब्दों के जोड़ से बना है. सु+अध्याय और स्व+अध्याय. सरल भाषा में इस का अर्थ कर दिया जाता है कि अच्छी पुस्तकों को पढ़ना और स्वयं का निरीक्षण करना अर्थात आत्म निरीक्षण करना. ऋषि पतंजली जी ने अष्टांग योग में पांच नियम बताये हैं और स्वाध्याय को नियम के अंतर्गत लिया है. ऋषि वेद व्यास जी जिन्होंने योग दर्शन का भाष्य किया है, उन्होंने इस स्वाध्याय शब्द को अति सुंदर ढंग से खोला है. स्वाध्याय का एक अर्थ किया है, उन शास्त्रों को पढ़ना जिन का विषय मोक्ष है और दूसरा अर्थ किया है प्रणव अर्थात ओ३म् का जप करना. स्वाध्याय भौतिक शास्त्रों का और आध्यात्मिक शास्त्रों का किया जाता है. आजकल विद्यालयों में, विश्वविद्यालयों में प्रायः भौतिक शास्त्रों का ही अध्ययन-अध्यापन का प्रचलन है. इन शास्त्रों को पढ़ कर छात्र अपनी-अपनी रूचि अनुसार जो विषय लेना चाहते हैं, लेते हैं. डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक वकील और अध्यापक इत्यादि बन कर जीविका उपार्जन कर रहे हैं. भौतिक विज्ञानं में उचित-अनुचित का ज्ञान बहुत ही कम दिया जाता है, जिस कारण व्यक्ति केवल जीवन का उदेश्य अधिक से अधिक धन उपार्जन और अधिक से अधिक भोग सामग्री का संग्रह ही मान लेता है और इस की प्राप्ति हेतु अनुचित ढंग भी अपनाता है और आसामाजिक काम भी करता है. आज का जो वातावरण है उस में यह माना जाता है कि येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक धन का उपार्जन करना है, यदि धन के उपार्जन में सत्य का हनन होता है, तो वह धन, धन या अर्थ न होकर अनर्थ होता है. धन से केवल भौतिक सुख प्राप्त होते हैं. आज हमारे समक्ष अर्थवाद, भोगवाद और अधिकारवाद का बहुत बड़ा तूफ़ान उपस्थित है. इस का सबसे बड़ा कारण आध्यात्मिक शिक्षा से बच्चों को वंचित रखना मान लिया जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. उचित व अनुचित का ज्ञान आध्यात्मिक शास्त्रों के अध्ययन से ही मिलता है. इस से ही मानव जीवन का उदेश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि भी होती है. बुद्धि विकसित होती है, तर्क शक्ति बढ़ती है, सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती है. ईश्वर, जीव, प्रकृति अर्थात तत्व ज्ञान होता है. प्रकृति सुख और मोक्ष सुख की तुलना कर सकते हैं. प्रकृति सुख क्षणिक है, हेय कोटि में आता है. इस लिए त्याज्य अर्थात छोड़ने योग्य है. मोक्ष सुख दीर्घ अवधि तक है. ग्रहण करने योग्य है इस लिए ग्रहण करने के उपाय करता है.
ऋषिव्यास जी ने स्वाध्याय का एक अर्थ जप किया है जिस को सामान्य जन नाम स्मरण कहते हैं. जब किसी शब्द अथवा मन्त्र को बार-बार दोहराया जाता है तो वो जप कहलाता है. विधि पूर्वक किये हुए जप से ही विशेष उपलब्धि होती है. जप प्रक्रिया में तीन बातो का विशेष ध्यान रखा जाता है. शब्द, अर्थ और भाव. प्रथम शब्द बोलते हैं, अर्थ बोलते हैं और भाव को पकड़ते हैं. भाव पकड़ने के बाद शब्द, अर्थ गौण हो जाते हैं, भाव प्रधान रहता है. उदाहरण के लिए हम ईश्वर के जो उसके गुण, कर्म और स्वभाव अनुसार अनंत नाम हैं, उनमें से अथवा ईश्वर का मुख्य निज नाम ओ३म् है, उस को लेते हैं शब्द ओ३म् है अर्थ सर्व रक्षक है भाव बनाते हैं कि रक्षक तो कोई भी हो सकता है, जो सब ओर से रक्षा करे केवल वह ही ईश्वर है. ईश्वर स्वयं और अपने बनाये हुए पदार्थों से हमारी रक्षा कर रहा है. ईश्वर के सविंधान-व्यवस्था से सूर्य, चन्द्रमा आदि बाहर से रक्षा करते हैं. ईश्वर इस सृष्टि को बनाता है, इस सृष्टि का पालन करता है. हमारे जीने की सारी व्यवस्था की हुई है. ईश्वर के कारण ही हमारे शरीर में रस, रक्त आदि धातु बनते हैं. ईश्वर प्रेरणा द्वारा भी रक्षा करता है. आत्मा को प्रभु की आवाज सुनाई न दे तो दोष किसका? मन में भय, लज्जा, और शंका जो दुष्कर्म, पाप करते समय मनुष्य के मन में उत्पन्न होती है, यही ईश्वर की प्रेरणा है. ईश्वर प्रेरक बन कर दुष्कर्मों से रक्षा करता है. भले ही जीव अनसुनी करके दुष्कर्म कर लेता है, जप काल में रक्षा के भाव का निरंतर चिन्तन करना ही प्रधान होता है. इस बीच में किसी अन्य वस्तु या विषय का स्मरण न करना ध्यान कहलाता है, जो योग की ऊंची अवस्था है. योग दर्शन में इसे ही ऋषि पतंजली जी तज्जपस्तदर्थभावनम् और तत्र प्रत्ययेकतानता ध्यानम् के दो सूत्र दिए हैं. कई लोग मिथ्या धारणा के कारण जप को माला फेरना ही मान लेते हैं परन्तु वे यह नहीं समझते कि माला जप में साधक नहीं अपितु बाधक है. जप के स्वरूप को एक गुरु शिष्य की वार्ता से अच्छी प्रकार समझ सकते हैं. शिष्य गुरु के पास आकर बोला- ‘गुरूजी हमेशा लोग प्रश्न करते हैं कि जप का असर क्यों नहीं होता, मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है.” गुरु उस समय यज्ञ में थे बोले ,” वत्स ! जाओ एक घड़ा शराब ले आओ.” शिष्य शराब का नाम सुनते ही अवाक् रह गया. गुरु और शराब ! वह सोचता ही रह गया. गुरु ने कहा सोचते क्या हो ?जाओ एक घड़ा शराब ले आओ. वह गया और एक छलछल भरा शराब का घड़ा ले आया. गुरु के सम्मुख रख बोला- आज्ञा का पालन कर लिया. “गुरु बोले-यह सारी शराब पी लो.” शिष्य अचंभित, गुरु ने कहा शिष्य ! एक बात का ध्यान रखना, पीना पर शीघ्र कुल्ला थूक देना, गले के नीचे मत उत्तारना. शिष्य ने वही किया, शराब मूंह में भर कर तत्काल थूक देता, देखते ही देखते घड़ा खाली हो गया, आकर कहा -गुरुदेव घड़ा खाली हो गया . “तुझे नशा बिलकुल नहीं आया. अरे ! शराब का पूरा घड़ा खाली कर गये और नशा नहीं चढ़ा ?” गुरुदेव नशा तो तब आता जब शराब गले से नीचे उतरती, गले के नीचे तो एक बूँद भी नहीं गई. फिर नशा कैसे चढ़ता, बस जप भी गले से नीचे उतरता ही नहीं, व्यवहार में आता नहीं तो प्रभाव कैसे पड़ेगा ? किसी कवि ने भी सुंदर कहा है-
माला फेरत युग गयो, मिटा न मन का मैल|
कर का मनका छोड़ के, मन का मनका फेर.||
समझाने की भाषा व शैली अलग-अलग हो सकती है लेकिन भाव एक ही है कि जप जब शब्द के भाव को ग्रहण कर के किया जाता है तो उस की विशेष उपलब्धि होती है. मन एकाग्र होता है.
आत्म निरिक्षण स्वाध्याय का ही अंग है. अपने दिन भर के किये गए क्रिया-कलापों का अवलोकन करना आत्म निरिक्षण है. क्या करना था जो नहीं किया और क्या नहीं करना था जो कर लिया. इस प्रकार अपनी भूलों और त्रुटियो को सुधार लिया जाता है. प्रायः व्यक्ति में दोष का बड़ा भाग तो यह है कि वह अच्छे कर्मों को करके नहीं देखता और बुरे कर्मों को छोड़ कर नहीं देखता. इसलिए अच्छे कामों में प्रवृति नहीं होती और बुरे कामों से निवृति नहीं होती.
मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन, जप और आत्म निरीक्षण ये तीनों ही स्वाध्याय है, स्वाध्याय मोक्ष के साधनों में एक साधन है. प्रचीन काल में जब ब्रह्मचारी का समावर्तन संस्कार होता था, जिसे आज की भाषा में दीक्षांत समारोह (convocation) कहा जाता है, गुरु शिष्य को अंतिम उपदेश दे कर विदा करता “स्वाध्याय मा प्रमादः “स्वाध्याय में कभी अनध्याय और अवकाश नहीं होता. ब्रह्मचारी, गृहस्थी और वानप्रस्थी इन तीनों आश्रमों के लिए अग्निहोत्र को अनिवार्य बताया गया है परन्तु सन्यासी को छुट दी गई है. स्वाध्याय एक ऐसा यज्ञ है, जिसे सन्यासी का भी नित्य का कर्म व धर्म माना गया है. स्वाध्याय को ऋषियो ने परम श्रम, परम तप और परम धर्म माना है
राज कुकरेजा /करनाल .

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