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रोइए उस हिंदुस्तान की खातिर जो खो गया है

apnibaat अपनी बात
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राजेश त्रिपाठी

हमारे देश ने इतनी तरक्की की है कि हम दुनिया के दूसरे देशों से प्रगति में मुकबला करने काबिल हो गये हैं। स्वाधीनता के पहले हम जहां सुई तक नहीं बना सकते थे, आज विमान तक बनाने लगे हैं और अब तो हमारा हौसला चंद्रमा तक को नाप लेने का है। हम दुनिया के उन महान गणतंत्रों में गिने जाते हैं, जहां वाणी आजाद है, हवा आजाद है और विचार आजाद हैं। परतंत्रता की बेड़ियों की मुक्ति के बाद से ही गणतंत्र पर हमारी आस्था अक्षुण्ण और अटल है। बीच के कुछ अवधि के अंधेरे को छोड़ दें तो गणतंत्र का आलोक अपने पूरे गौरव के साथ देश के आलोकित कर रहा है। हम तकनीक में दुनिया से किसी मायने में उन्नीस नहीं हैं। जहां तक साहित्य का प्रश्न है हमारे लेखक (अंग्रेजी वाले ही सही) विश्व स्तर पर समादृत और पुरस्कृत हो चुके हैं और हो रहे हैं। ऐसे में हमें एक भारतीय या कहें हिंदुस्तानी होने में गर्व है लेकिन इस गर्व के साथ एक बड़ा सा लेकिन जुड़ा हुआ है। हम जिस गति से आगे बढ़े हैं,उससे कहीं दूनी गति से हमारा चारित्रिक पतन हुआ है। प्रशासन के निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक व्याप्त भ्रष्टाचार, नीति की जगह सीना तान कर सबको मुंह चिढ़ाती अनीति और देश की जनता के धन की जम कर लूट यही है हमारी प्रगति और हमारे गणतंत्र (इसे गन तंत्र कहें तो ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि जिसके हाथ में गन (बंदूक ) है आज उसी की तूती बोलती है)का आज का हासिल। अब तो देश की सत्ता की दशा-दिशा भी बाहुबली तय करते हैं। विधायक हों या सांसद उनकी कृपा बिन विजय का मुकुट पहन ही नहीं सकते। इन बाहुबलियों से कई अब भी संसद और विधानसभाओं की शोभा बढ़ा रहे हैं। इनकी हैसियत और रुतबे का पता इसी से चलता है कि ये जेल में रह कर भी चुनाव लड़ते और जीतते रहे हैं। पिछले चुनाव में इन पर तनिक अंकुश भले ही लगा हो लेकिन इनका रुतबा खत्म हो गया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता। जहां तक सच्चे और सही उम्मीदवारों का प्रश्न है तो या तो वे खड़े होने का साहस नहीं कर पाते, और अगर ऐसा करते भी हैं तो बाहुबली के गुर्गे या तो उन्हें जबरन बैठा देते हैं या डर के मारे सारे वोट बाहुबलियों को ही पड़ जाते हैं।

वैसे देश के जागरूक युवा वर्ग के चलते आज नहीं तो कल बाहुबलियों का पराभव होना ही है। गणतंत्र के लिए ऐसा होना आवश्यक भी है क्योंकि कोई भी गणतंत्र गुंडातंत्र होकर ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकता। आज की जो स्थिति है उसमें जिस तरह से बड़े-बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं और उनमें जिस तरह से मंत्री स्तर तक के लोगों को जुडा पाया जा रहा है, वह एक ऐसे गणतंत्र के लिए जो दुनिया में एक अनोखी मिसाल है,एक तरह से खतरे की घंटी है। जनता कर के रूप में जो धन देती है उसकी किस कदर लूट मची है, इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हाल के दिनों में सामने आये हैं। चाहे राष्ट्रमंडल खेलों का घोटाला हो या भी टू जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में ली गयी करोड़ों की घूस, ये सारे मामले देश को कठघरे में ला खड़ा करते हैं। सत्य, अहिंसा और सदाचार की मूर्ति रहा भारत, कभी विश्वगुरु कहा जाने वाला भारत आज कहां है? जिसके मंत्री तक घूस के कीचड़ में गले तक डूबे हों उसमें गर्व करने के लिए क्या बचा रह जाता है?मानाकि सरकार ने देश की जनता को सूचना का अधिकार जैसा ब्रह्मास्त्र देकर बड़ा ही पुनीत कार्य किया है,इसके चलते जनता को प्रशासन या सरकार के किये धत्कर्म पर उंगली उठाने का साहस और जरिया तो मिला है लेकिन बावजूद इसके भ्रष्टाचारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। वे सीना ठोंक कर जनता के धन को लूट रहे हैं और देश को बेच रहे हैं। देश आज किस बात पर गर्व करे?क्या इन लुटेरों पर जो सरकारी साधन बेचने में घूस खा कर अपनी ही सरकार को करोड़ों का चूना लगा रहे हैं? क्या उन पर जो ठंड़े घरों में बैठ रेगिस्तान की तपन के दर्द को महसूस करने का नाटक कर रहे हैं?क्या उन पर जो बाढ़ का मुआयना आसमान से कर लौट जाते हैं और उस पानी में अपने चरण भी नहीं भिगोते जिसमें देश की एक बड़ी आबादी ऊभचूभ कर रही होती है? क्या उन बिचौलिये नेताओं पर जो मुसीबत के मारे बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए आया अनाज या तंबू वगैरह लूटने (हड़पने कहें तो ज्यादा उचित होगा) में भी नहीं लजाते?या कि नेताओं के उन गुर्गों पर जो अपने इलाके में राजा जैसा बरताव करते हैं और जिनके चलते मुल्क की बड़ी जनता सांसत-आफत में रहती है?या उन पर जिन्हें सिर्फ अपनी सुख-सुविधाओं की चिंता है देश में भुखमरी और कर्ज की मार से अकाल मौत चुनने वाले किसानों की फिक्र नहीं?आंकड़े उठा कर देख लीजिए देश में पिछले कुछ सालों में भुखमरी और कर्ज के मारे से त्रस्त जितने किसानों ने आत्महत्या की है,वह इनकी परेशानी से उदासीन प्रशासकों के मुंह पर कालिख पोतने के लिए काफी है।

हमारे देश में योजनाओं का हाल यह है कि यह जिन लोगों के लिए बनती हैं उन तक या तो पहुंच नहीं पातीं या फिर पहुंचती भी हैं तो बिचौलियों के माध्यम से। वैले नरेगा व मनरेगा जैसी योजनाओं काफी सफल रही हैं और इनके सुफल भी देखने को मिले हैं लेकिन देश के सीमांत व्यक्ति तक सुख औरसलीके की जिंदगी और सामान्य सुविधाएं पहुंचाने का काम अब तक होना शेष है। जिस देश में आज भी आबादी का बड़ा हिस्सा दूषित जल पी रहा हो, इलाज के अभाव में जहां का बचपन जिंदगी जीने से पहले मौत के मुंह में चला जाता हो और जहां युवा पीढ़ी का बड़ा हिस्सा बेरोजगार हो उस देश को इस बारे में गंभीरता और संजीदगी से सोचना और काम करना चाहिए।

हम कुछ सवालों से घिरे थे कि हमारे पास गर्व करने के लिए क्या है। जवाब साफ हैं कि हमारे पास आज भी गर्व करने के लिए बहुत कुछ है। हमारे वीरता और जीवट से भरे-पूरे सैनिक जिनका दुनिया में कोई सानी नहीं और जिनकी चौकस निगाहों और हिमालय से भी बुलंद हौसलों के चलते हमारी सीमाएं सुरक्षित हैं और जिनके चलते हम चैन की नींद सो सकते हैं। हम अपनी न्यायपालिकाओं पर गर्व कर सकते हैं जो आज भी स्वतंत्र और स्वच्छ हैं। जिनके साहसिक निर्णय कई बार प्रशासकों की नींद तक हराम कर देते हैं और ऐसे में बरबस मुंह से उनके लिए कोई शब्द निकलता हो तो यही ‘न्याय की जय हो,अन्याय का क्षय हो’। हमारे पास गर्व करने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा जैसे पर्यावारण प्रेमी योद्धा हैं जिन्हें हम वृक्षमित्र भी कह सकते हैं। उनके अनथक श्रम और सत्प्रयास से हजारों पेड़ लालची लकड़ी चोरों के हाथों अकाल मौत का शिकार होने से बच गये। पूज्य और श्लाघनीय हैं देश के ऐसे सपूत। हमें गर्व है कि भारत ने ही विश्व को बाबा साहब आमटे जैसा व्यक्तित्व दिया जिन्होंने कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना जीवन सौंप दिया। भारत के इस दूसरे गांधी की सेवानिष्ठा की विरासत आज उनका परिवार निरंतर जारी रख रहा है। हम गर्व कर सकते हैं ऐसे हजारों समाजसेवियों पर जो समाज के दुख-दर्द को अपना समझते और उसे दूर करने के लिए तत्पर रहते हैं। यही हमारे देश की सच्ची पहचान हैं, यही आदर्श हैं। देश में गर्व करने के लिए और भी बहुत कुछ है ऐसे में अंधेरा भले ही घना हो लेकिन यकीन है कि प्रकाश पुंज अब भी बाकी हैं। इन्हें आप सच्चे और कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों,दूसरों का दुख हरने के लिए अपना सुख-चैन भूल जाने वाले चिकत्सकों और ऐसा प्रशासकों या राज नेताओं में देख सकते हैं जिनके सामने दूसरो की भलाई के आगे अपने सुख,अपनी सुविधाएं गौण लगती हों। आज भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है क्योंकि जिस दिन इस देश से ऐसे लोग मिट जायेंगे वह दिन मानव सभ्यता के लिए वह काला दिन होगा, जब अनाचार का बोलबाला होगा और हर सच्चा इनसान आंसुओं में डूबा होगा।

हमने जो कुछ खो दिया है उस पर बिसूरना या उसके लिए दुख करना भी जरूरी है। वोट के लालची, मक्कार राजनेताओं के चलते देश से भाईचारा, प्रेम और वह सौहार्द मिट गया है जो कभी इस देश की पहचान होता था। आज वोट के लिए ये स्वार्थी राजनेता आदमी-आदमी या कहें भाई-भाई के बीच खाई खोद रहे हैं। देश में जातिवाद का बोलबाला है और यह राजनीति में भी हावी है। आज प्रत्याशी की जीत –हार जाति पर आधारित हो गयी है। जहां जिस जाति का बाहुल्य वहां उसी जाति का प्रत्याशी खड़ा होने लगा है। ऐसे में जाहिर है कि वह जीत कर उसी जाति विशेष के भले की बात सोचेगा,बाकी लोग उसकी सोच की प्राथमिकता के दायरे से दूर होंगे। देश ने बहुत कुछ खोया है। सामाजिक समरसता खो गयी है। गांव जहां किसी एक घर के दुख-दर्द में गांव की पूरी आबादी जुट जाती थी,अब हर जाति के हिसाब से कई हिस्सों में बंट गये हैं और उन हिस्सों की सोच बस अपने हिस्से तक ही सिमट कर रह गयी है। आधुनिकता की घुसपैठ ने गांव की लोककलाओं वहां की शाश्वत सुंदरता में ग्रहण लगा दिया है। कभी तीज-त्यौहार गांवों में नया रंग भरते थे अब वे भी फीके पड़ गये हैं। मनोरंजन के आधुनिक साधनों ने गांवों की कजरी की तान और आल्हा के जोश पर भी चोट की है। अब ये या तो खत्म हो चुके हैं या खत्म हो जायेंगे। लोकगीत जो कभी भक्ति और सामाजिक समस्याओं पर होते थे, अब अश्लीलता की सारी हदें पार कर चुके हैं। इनका एक-एक शब्द अब आपको गरम पिघले शीशे की तरह चुभेगा। अगर आपने अपनी लज्जा को तिरोहित कर दिया है तब आपमें ये गीत नशीली सिहरन भर सकते हैं,जिसे अंग्रेजी में टिटलाइजेशन कहते हैं। मानाकि कि लोकगीतों में चुहबाजियां पुरानी बात है,जिन लोगों को गांव-गिराम की बारातों में जाने का मौका मिला होगा, उन्हें बारात की जीमने के वक्त या दूसरे नेगचार में गारी सुन कर जरूर वैसी ही सिहरन या पुलकन हुई होगी जैसी पैदा करने के लिए आज के बोलियों या भाषाओं के गीत नारी को बेपरदा और बेआबरू करने लगे हैं।

भारत या हमारे हिंदुस्तान की पहचान धीरे-धीरे खोती जा रही है। हम पर पश्चिम की नकल का जो भूत सवार है वह हमारी प्राचीन अस्मिता और पहचान को कहीं का नहीं छोड़ेगा। जिस हिंदुस्तान में पश्चिम सुकून और मोक्ष की तलाश में आता है वह सुख-चैन, मौज-मस्ती की जिंदगी के लिए पश्चिम का मुंहताज है। पश्चिम ऐसी शैली से ऊब चुका है और उससे उपजे दुष्परिणामों पर पशेमान और हैरान-परेशान भी है। वहां कुंआरी कन्याएं मां बन रही हैं, धड़ाधड़ शादियां टूट रही हैं और वर्जनाएं तो वहां हैं ही नहीं जो कुछ हद तक किसी भी सुसंस्कृत और शालीन समाज के लिए जरूरी हैं। अगर ऐसी ही प्रगति होती है,यही सामाजिक उत्शान है तो प्रभु करे मेरे देश को ऐसी प्रगति न मिले। हमने जो खोया है,हमारी जो गौरवशाली परंपरा थी,जो तेजी से छीज रही है आइए उसका मातम मनाएं। आइए उस खो गये हिंदुस्तान पर आंसू बहायें और सोंचे कि क्या हम इस अधोपतन को रोकने के लिए कोई सार्थक प्रयास कर सकते हैं। या कम से कम इस दिशा में कोई आवाज उठा सकते हैं। जाहिर है मेरी तरह आपमें से कुछ लोग उसके लिए दुखी होंगे जो हमसे खो गया है।

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