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राजेश त्रिपाठी
Contest: भाषा न सिर्फ अभिव्यक्ति का साधन अपितु किसी देश, किसी वर्ग का गौरव होती है। यही वह माध्यम है जिससे किसी से संपर्क साधा जा सकता है या किसी तक अपने विचारों को पहुंचाया जा सकता है। भारतवर्ष की प्रमुख भाषा हिंदी तो जैसे इस देश की पहचान ही बन गयी है। हिंदुस्तान से हिंदी का क्या नाता है यह किसी से छिपा नहीं है। भारतमाता के माथे की बिंदी है हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी। लेकिन आज अपने ही देश में यह उपेक्षित है। सरकार की ओर से हिंदी की श्री वृद्धि और इसके प्रचार-प्रसार के नाम पर हर साल हिंदी दिवस के दिन इसका सालाना श्राद्ध मनाया जाता है। लाखों रुपयों का बजट बनता है, जलसे होते हैं, कुछ कर्मचारियों को पुरस्कार बंटते हैं और हो जाता है हिंदी का विकास। इस तरह के आयोजनों में देखा गया है कि भाषण दिलवाने के लिए कभी किसी संपादक, पत्रकार क्या किसी हिंदी अधिकारी को बुला लिया जाता है। वह सरकारी कार्यालयों के कर्मचारियों की हिंदी में किये कार्य की `दक्षता‘ का मूल्यांकन करता है और उन्हें पुरस्कार देकर हिंदी में काम करने के लिए प्रोत्साहित करता है बस हो गया हिंदी दिवस और हिंदी के कल्याण का तथाकथित सरकारी प्रयास। इस तरह के हिंदी दिवसों और हिंदी के बारे में एक दिन चिंता जताने से कुछ होने वाला नहीं। हिंदी को इस तरह के सालाना श्राद्धों ( सरकार इसे हिंदी दिवस कहती है) की नहीं श्रद्धा की जरूरत हिंदी आज इंटरनेट की बांह थाम विश्व स्तर पर अपनी धाक जमा चुकी आज हिंदी दासी नहीं , वह विश्व पटल पर विराजती महारानी है। वह महारानी जिसका आंचल तुलसी, सूर. मीरा. रहीम, भारतेंदु, जयशंकर प्रसाद, निराला और ऐसे ही न जाने कितने साहित्य मनीषियों की साहित्य-साधना से समृद्ध है।
भाषा किसी जाति या देश के लिए क्या अर्थ और क्या प्रभाव रखती है इस पर हमारे साहित्य मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा-कहा है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने तो यहां तक लिखा था-जिसको न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है, वह नर नहीं हैं पशु निरा और मृतक समान है। यहां `अभिमान‘ शब्द को घमंड नहीं गर्व के अर्थ में देखना चाहिए। वाकई अगर हमें अपनी भाषा पर गर्व नहीं, उसके प्रति श्रद्धा नहीं तो फिर जीवन ही अकारथ है।
भारतेंदु हरिश्चचंद्र ने तो और आगे बढ़ते हुए कहा था- निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल। हिंदी के प्रति प्यार का सीधा अर्थ है देश और समाज के प्रति प्यार लेकिन पता नहीं क्यों आज भी समाज का बड़ा तबका हिंदी को हिकारत की दृष्टि से देखता है और अंग्रेजी को सिर पर चढ़ाये बैठा है। मैकाले की शिक्षा प्रणाली ने जो गजब ढाया है उसका ही दुष्परिणाम है की आज भी यह निश्चित धारणा बन गयी है कि अच्छी नौकरी पाना है तो अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाओ। बहुत हद तक यह धारणा सच भी है क्योंकि आज भी नौकरियों में अंग्रेजीदां तबके का ही बोलबाला और रौब है ।जो हिंदीवालों को हिकारत और उपेक्षा की दृष्टि से देखता है। यह कटु सत्य है भले ही कोई इसे नकारे। हिंदी और हिंदुस्तानियों के हित में यही अच्छा है कि यह जितना जल्द बदल जाये उतना ही बेहतर। इसके लिए हिंदीभाषी कम दोषी नहीं जो बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण स्थानों में होने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ अपनी रोजी-रोटी तक ही सीमित हैं। वे सामर्थ्यवान हैं, ऐसे केंद्रों में हैं जहां से हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन करते नहीं। ऐसे तो देखा जाये तो हमारी भारत सरकार हिंदी के विकास और संवर्धन के लिए अथक प्रयास कर रही है। करोड़ों रुपये राजभाषा की पारिभाषिक शब्दावली बनाने में सरकार ने खर्च किये, अपनी समझ में बड़ा काम किया लेकिन हिंदी का भला करने की बजाय उसके साथ वेवजह की छेड़छाड़ की गयी है। हिंदी के इन सरकार पोषित विद्वानों ने एक ऐसी हिंदी गढ़ दी जो लोगों को डराने लगी है। साधारण से शब्दों के लिए लोगों को शब्दकोश झांकने की जरूरत पड़ने लगी। सरकार ने तो बाकायदे अपनी ओर से गढ़ायी गयी इस तथाकथित सरकारी हिंदी का शब्दकोश तक जारी कर दिया पारिभाषिक शब्दावली के नाम पर। भाई हमारी हिंदी इतनी बेचारी और लाचार तो नहीं कि इसके सरकारी प्रयोग के लिए नयी शब्दावली गढ़नी पड़े। इसके अपने प्रचलित शब्द क्या तकलीफ दे रहे थे जो यह तमाशा किया गया। साधारण सा जारी शब्द (माना कि यह उर्दू का है लेकिन हिंदी ने अपनी बहन उर्दू को कभी पराया नहीं समझा और गांधी जी ने भी उस हिंदी का समर्थन किया था जो सीधी-सादी और सर्व ग्राह्य हो) के लिए सरकार के इन विद्वानों ने भारी भरकम निर्गम शब्द रच डाला। आप किसी से पूछिए उसके लिए जारी ज्यादा आसान होगा या निर्गम मैं यकीन के साथ कहता हूं ज्यादातर लोग जारी के पक्ष में खड़े नजर आयेंगे। ऐसे ही अनेक शब्द हैं।
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