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काश! अखिलेश को काम करने दिया जाता

राकेश कुमार आर्य
राकेश कुमार आर्य
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समाजवादी पार्टी का कलह टिकट बंटवारे को लेकर एक बार फिर उभरता दिखाई दे रहा है। वैसे टिकटों के बंटवारे को लेकर हर पार्टी में कुछ ना कुछ खींचतान होती ही है। परंतु सपा की खींचतान कुछ अलग ही अर्थ रखती है। इसमें दो राय नहीं कि सपा को वर्तमान स्थिति तक पहुंचाने के लिए मुलायम सिंह यादव ने पार्टी को खून पसीने से सींचा है। उनके पुरूषार्थ का ही फल रहा है कि पार्टी बड़ी तेजी से आगे बढ़ी और प्रदेश व देश में उसने कई बार सत्ता सुख भोगा।
इस सबके उपरांत भी पार्टी पर भूमाफियाओं और समाज के दबंग व बदमाश लोगों को संरक्षण देने के आरोप जिस प्रकार लगे, वह पार्टी के लिए कोई शुभ संकेत नहीं थे। इस देश का बहुसंख्यक हिंदू सपा को सहारा देता रहा है, बावजूद इसके कि उस पर मुस्लिमपरस्त होने के भी गंभीर आरोप लगे हैं। भूमाफियाओं और बदमाशों को संरक्षण देने की सपा की कमजोरी को शिवपाल सिंह यादव जैसे लोगों ने अधिक बढ़ाया। वे एक से बढक़र एक ऐसे व्यक्ति या नेता को पार्टी में लाने की वकालत करते देखे गये हैं, जिसकी सामाजिक पृष्ठभूमि या व्यक्तिगत चरित्र मुठमर्दी वाला रहा है। नेताजी के लिए अपनी पार्टी के समाजवादी आइने में इन हैकड़ और मुठमर्द लोगों को फिट करना कभी भी आपत्तिजनक नहीं रहा है पर अब नेताजी के सुपुत्र और सपा के वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिए यह सब असहनीय हो गया है। जिसके विरूद्घ उन्होंने खुली बगावत कर दी है। उसी बगावत को सपा अपने परिवार का कलह कर रही है। पर यह परिवार का कलह नहीं है, अपितु समाजवादी पार्टी द्वारा समाजवाद की गढ़ी गयी परिभाषा को ठीक करने का एक आंदोलन है, जिससे संयोग से एक पिता को अपने ही पुत्र से चुनौती मिल रही है। अब जब पिता ने पार्टी को एक परिवार की जागीर के रूप में ही बदलकर रख दिया हो तो उसमें चुनौती भी तो किसी परिवार के व्यक्ति से ही मिलेगी। तब इसे परिवार का कलह कहना उचित नहीं है। यदि ऐसी परिस्थितियों में अखिलेश के स्थान पर कोई और भी होता तो वह भी ऐसा ही करता, जिसे आज अखिलेश कर रहे हैं।
जहां तक पार्टी के मुस्लिम परस्त होने की बात है तो सपा ने अपनी मुस्लिमपरस्ती से मुस्लिमों का कोई भला नही किया है। उसी मुस्लिमपरस्ती भी मुस्लिमों को कांग्रेस की भांति ‘वोट बैंक’ बनाकर उनका प्रयोग करने तक ही सीमित रही है। अच्छा होता कि सपा मुस्लिम बच्चों के हाथ में रोजगार का कोई स्थायी साधन उपलब्ध कराती। उन्हें आधुनिक शिक्षा से जोड़ती और उनके जीवन स्तर को ऊंचा करने की दिशा में ठोस कदम उठाती। उनके भीतर भरी जाने वाली कट्टरता को समाप्त कर उन्हें मानवतावादी बनाकर देश की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करती। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की यह बात सही है कि वह निर्णय अच्छे नहीं होते जो जनता को अच्छे लगते हैं, अपितु वह निर्णय अच्छे होते हैं जो जनता का अच्छा करते हैं। निश्चय ही जनता का अच्छा करने वाले निर्णय कुछ कठोर होते हैं।
पिछले 5 वर्ष में से पहले चार वर्ष उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपनी सरकार के मंत्री शिवपाल सिंह यादव व आजमखान जैसे लोगों के कहने से ऐसे निर्णय लेते रहे हैं जो कि जनता को अच्छे लगते थे। बात साफ है कि उनके निर्णय जनता का अच्छा नहीं कर पाये। उनके पीछे आजम और शिवपाल खड़े रहे।
अखिलेश यादव धर्म संकट में फंसे हुए निर्णय लेते रहे। जब उन्होंने साहस किया तो उन्हीं की पार्टी के लोगों को ऐसा लगा कि वह दुस्साहस कर रहे हैं। पर इसी समय उन से दूर होते जा रहे मतदाताओं को कुछ अच्छा सा लगने लगा, वे रूके और अपने मुख्यमंत्री को गंभीरता से सुनने लगे। सपा का कलह बढ़ा और सारी उठापटक के उपरांत नेताजी को भी यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि इस समय अखिलेश का पलड़ा भारी है। प्रदेश का कार्यकर्ता और मतदाता अखिलेश के साथ है इसलिए उन्होंने पार्टी का कलह रोकने का प्रयास किया।
अखिलेश के इस प्रकार के बढ़ते कद से पार्टी के भीतर के ही लोग असंतुष्ट रहे। उन्हें यह उचित नहीं लगा कि एक ‘छोकरा’ उन्हें उनकी औकात बता दे। पर परिस्थितियों के सामने वे भी विवश थे। इसलिए मौन रह गये। अब टिकट बंटवारे को लेकर सभी पक्ष अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए फिर एक बार उत्साह दिखा रहे हैं। उनको पता है कि यदि इस समय असावधानी बरती गयी तो बाद में अस्तित्व का संकट उपस्थित होगा। फलस्वरूप यह टिकट के बंटवारे का झगड़ा नहीं है, अपितु यह अस्तित्व के संकट को लेकर किया जा रहा संघर्ष है।
समाजवादी यदि अपने मुख्यमंत्री को निष्पक्षता से शासन करने देते तो अखिलेश में यह प्रतिभा है जिसके बल पर वह लोगों को अपने साथ लेकर चल सकते थे। अखिलेश के लिए भी यही उचित होता कि वे मोदी की तरह कठोर अनुशासन लागू करते और अपने मंत्रियों के अनुसार न चलकर उन्हें अपने अनुसार चलाते। वैसे भी राजनीति में ‘चाचा’ बाद में होता है पहले वह नेता का एक मंत्री होता है। जिसे अपने नेता के अनुसार चलना होता है। समाजवादियों से गलती यह हुई कि वे राजनीति को भी परिवार के संबंधों की तरह आंकने लगे। वे भूल गये कि इस देश में भीष्म अपने भतीजे में और पौत्र में हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठते ही पिता का चित्र देखता है और उसके आदेशों का पालन करता है। यद्यपि अनुचित आदेशों का विरोध भी करता है-भारत के वास्तविक समाजवादी लोकतंत्र की यही विशेषता है-जिसे समाजवादी भी नहीं अपना सके। फलस्वरूप वे अपने ही ‘धर्मराज’ को वनवास दिलाने के आत्मघाती षडय़ंत्रों में सम्मिलित हो गये। क्या ही अच्छा होता कि ये समाजवादी अपने मुख्यमंत्री को काम करने देते? तब निश्चय ही समावादी पार्टी को अपनी अगली सरकार बनाने में कोई कठिनाई नहीं होती पर अब क्या होगा……?

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