Menu
blogid : 25268 postid : 1301132

…..और संसद हार गयी

राकेश कुमार आर्य
राकेश कुमार आर्य
  • 21 Posts
  • 22 Comments

भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि यदि संसद हार गयी तो हम सबकी बड़ी बदनामी होगी। …और हमने देखा है कि संसद हार गयी है। हमारे नेताओं ने परस्पर के अहंकार के कारण जानबूझकर ऐसी परिस्थतियां उत्पन्न कीं कि संसद का पूरा सत्र ही बेकार की बातों में निकाल दिया। देश की जिस संसद की कार्यवाही पर प्रतिदिन करोड़ों रूपया व्यय होता हो उसके एक पूरे सत्र को ही हमारे नेताओं ने देश के लिए उपयोगी नहीं बनने दिया। इनकी ऐसी स्थिति को देखकर तो यही कहा जा सकता है :-
आंधियों से कुछ ऐसे बदहवास हुए लोग कि
जो दरख्त खोखले थे उन्हीं से लिपट गये।

लगता है कि हम खोखले दरख्तों से लिपटने की भूल कर बैठे हैं। ये ‘खोखले दरख्त’ धर्म-अधर्म का अंतर भूल बैठे हैं।
लोग कहते हैं कि युधिष्ठिर ने जुआ खेलकर भारी भूल की थी और यदि युधिष्ठिर जुआरी था तो वह ‘धर्मराज’ कैसा था? ‘युधिष्ठिर के जुआरी’ होने का यह प्रश्न आज भी हमारे लिए प्रासंगिक है। बड़े शांतमना होकर हमें विचारना चाहिए कि युधिष्ठिर को जुआ खिलाया गया या वह उसने स्वयं ने जुआ खेला था? इस पर विचार करने से पता चलता है कि दुर्योधन व शकुनि की चाण्डाल चौकड़ी ने युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए उकसाया और उसे राज्यविहीन कर वनवास देने के लिए यह सारा षडय़ंत्र रचा। ऐसा नहीं है कि युधिष्ठिर का कोई दोष द्यूतक्रीड़ा में नहीं था। दोषी युधिष्ठिर भी था। उसे भी जुआ जैसे खेल को कम से कम दुर्योधन और शकुनि के साथ नहीं खेलना चाहिए था। फिर भी यदि उसने जुआ खेला भी तो वह उसमें ना केवल हारा अपितु 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास उसे और उसके भाइयों को मिला। उसकी गलती का यह उसके लिए कठोर दण्ड था। उसकी समझदारी यह थी कि उसने कठोर दण्ड को भी अपनी गलती के चलते सहर्ष स्वीकार किया। गलती का दण्ड पूर्ण हुआ, तो उसने विनम्रता के साथ अपने ज्येष्ठ पिताश्री धृतराष्ट्र से अपना खोया हुआ राज्य वापस मांगा। बस यहीं से ‘जुआरी युधिष्ठिर’ फिर से एक ‘धर्मराज’ बन गया। कारण कि वह अपने दण्ड को भोगकर सोने से कुंदन बनकर बाहर निकला। उसने कहीं भी और कभी भी यह प्रयास नही किया-जिससे उसका दण्ड कम हो जाए या वह संकटों से घबराकर वन से भाग ले या दुर्योधन को निपटाकर अपने खोये राज्य को प्राप्त कर ले। इसके विपरीत युधिष्ठिर ने पूर्ण धैर्य का परिचय दिया और समय आने पर ही अपने राज्य की प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। इसी को धर्म कहते हैं।

विवेकशील लोग धर्मशील होते हैं। वे दण्ड को भोगते हैं-तो उसमें धैर्य का भी परिचय देते हैं। ऐसे लोग यदि किसी को दण्ड भी देते हैं तो उतने तक ही देते हैं जितना किसी अपराध के लिए उचित और आवश्यक होता है। चांटे के लिए किसी को प्राणदण्ड दे देना अधर्म है, अन्याय है, अत्याचार है, क्रूरता है। किसी के अधिकार को छल से छीनना तो और भी बड़ा अन्याय है, दुर्योधन दण्ड भोग चुके युधिष्ठिर को और भी अधिक दण्ड देना चाहता था, वह उन्हें फिर किसी अपराध में वनवास के लिए लाद देना चाहता था। साथ ही दुर्योधन पाण्डवों के अधिकार को कदापि देना नहीं चाहता था। बस, इसी कारण वह ‘अधर्मी’ बन गया था। हम लोग युधिष्ठिर को जुआरी तो कह देते हैं-पर यह नही विचारते कि वह धैर्यवान कितना था कि अपने दोष के कारण निरंतर तेरह वर्ष तक सजा भोगता रहा और कभी भी किसी से कोई शिकायत नही की। संभवत: वह जानता था कि गलती मेरी है, इसलिए गलती का दण्ड धैर्यपूर्वक भोगना मेरा कत्र्तव्य है। युधिष्ठिर को कोसने वाले उसके इस प्रकार की गंभीर और मर्यादित तपस्वी जीवन शैली का भी ध्यान करें।

आज देश की संसद कहीं चल रही है या कहें कि नहीं चलने दी जा रही है। कितने लोग हैं जो यह समझ रहे हैं कि संसद न चलना ‘द्रौपदी का चीर हरण’ है? कितने लोग हैं जो यह समझ रहे हैं कि संसद न चलने देकर कुछ लोग ‘युधिष्ठिर’ को जुआ के लिए उकसा रहे हैं। साथ ही ऐसा प्रबंध भी कर रहे हैं कि यदि ‘युधिष्ठिर’ 13 वर्ष पश्चात लौटकर पुन: आये तो उसे फिर से वनवास में भेज दिया जाए? जो लोग ऐसे सत्ता षडय़ंत्रों में लगे हैं वे देश को ‘महाभारत’ की ओर धकेल रहे हैं। देश की जनता को सावधान होना ही पड़ेगा।

यह माना जा सकता है कि नोटबंदी के निर्णय को लागू कराने में मोदी सरकार की कुछ खामियां रही हैं, परंतु कालेधन को बाहर लाने के लिए मोदी सरकार के इस निर्णय को सारे विपक्ष ने भी उचित ही माना है। निश्चय ही मोदी ने जुआ खेला है और अपने जीवन को ही दांव पर लगा दिया है। इसमें यदि कहीं कोई चूक रह गयी है तो उसकी इतनी बड़ी सजा तय करने का अधिकार विपक्ष को नहीं कि वह संसद ही न चलने देता। संसद को न चलने देकर विपक्ष ने पी.एम. मोदी को नहीं अपितु संपूर्ण राष्ट्र को ही दंडित कर दिया है। जिसका उसे कोई अधिकार नहीं था। यह सरासर अधर्म का रास्ता है। इस रास्ते पर बढ़ती देश की राजनीति को देखकर सचमुच संसद भी शर्मिंदा है, और भारत का लोकतंत्र भी शर्मिंदा है। आडवाणी जी जैसे लोगों के पास इस्तीफा देने के अतिरिक्त अब है भी क्या? वह जिंदा ‘शहीद’ होना चाहते हैं, पर अच्छा होता कि वह शहीद ना होकर ‘जाहिद’ (पुजारी) हो जाते और लोकतंत्र के पुजारी के रूप में लोकसभा में घण्टे दो घण्टे पक्ष-विपक्ष को सही रास्ते पर आने का उपदेश देते-तो आज उन्हें और संसद को शर्मिंदा ना होना पड़ता, और तब हमारी संसद भी न हारती।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh