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आज दीपावली का पावन पर्व है। वैदिक संस्कृति का एक ऐसा पावन पर्व जो चाहता है कि हर व्यक्ति के जीवन में प्रकाश हो, उल्लास हो, हर्ष हो और आनंद हो। यात्रा चाहे शून्य से प्रारंभ हो, पर उसका समापन सैकड़ा पर हो। जो लोग भारत के पवित्र पर्वों का उपहास उड़ाकर उन्हें केवल रूढि़वादिता के रूप में जानने, मानने और समझने के आदी हो चुके हैं, उन्हें क्या पता कि आर्यों (हिंदुओं) के हर पर्व के पीछे कितना सटीक वैज्ञानिक सत्य छिपा होता है। माना कि परंपराओं में थोड़ी देर बाद चलते-चलते रूढि़वादिता की जंग लग जाती है पर यह वैदिक धर्म-सनातन धर्म सनातन धर्म इसीलिए है कि यह अपनी जंग की सफाई के लिए कोई न कोई ‘शंकराचार्य’ और ‘दयानंद’ पैदा कर ही लेता है? यह ऐसे ही नहीं है कि महर्षि दयानंद इस असार संसार को उस दिन छोड़ते हैं या छोडऩे का निर्णय लेते हैं जिस दिन यह संसार ‘प्रकाश’ में नहा रहा था। मानो जीवन का उद्देश्य प्राप्त कर लिया कि संसार को ‘प्रकाश’ से नहलाना है और जब देखा कि आज प्रकाश पर्व है तो जीवन त्यागने का निर्णय ले लिया।
विश्व में भारत ही एकमात्र देश ऐसा है जो अपने देशवासियों के नाम के पीछे ‘देव’ (यथा हरिदेव, कृष्णदेव, रामदेव आदि) या ‘आनंद’ (विवेकानंद, दयानंद, श्रद्घानंद, रामानंद आदि) लगाता है। यह प्रकाश पर्व मनाता ही नहीं है अपितु यह ‘देव’ बनकर प्रकाश के ‘आनंद’ के साथ एकाकार हो जाना भी जानता है। यह इसकी मौलिक चेतना है जिसे कोई बुद्घिवाला ही समझ सकेगा। भारत की संस्कृति भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का निर्माण करती है। कहती है कि-सब मिलकर चलो, सब साथ चलो, सब एक बनो, सब नेक बनो। ऐसा आदेश देने के लिए जिसके वेद ने एक संगठन सूक्त का ही निर्माण कर दिया हो, और यह निर्धारित कर दिया हो कि जीवन का अंतिम लक्ष्य ‘एक’ होना है-बिखरना नही। वहां विविधताओं का सम्मान तो हो सकता है पर उन विविधताओं का अंतिम लक्ष्य ‘एक’ को मजबूती देना भी अनिवार्य किया गया है। ऐसे भारत की महानता को बारंबार नमन।
प्रकाश पर्व दीपावली पर दीप से दीप जलाने की परंपरा है। एक दीप दूसरे दीप को जलाता है। मानो कहता है कि मैं तो प्रदीप्त हो उठा-अब तुझे भी दीप्तिमान करूंगा। तुझे भी प्रकाशित करूंगा। मैंने विकास की राह देख ली है-अब तुझे भी उसी राह का राही बनाऊंगा-यह है भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद। जिसे प्राप्त करके व्यक्ति जाग उठता है और वह ‘स्वचालित’ यंत्र बन जाता है। ‘आत्मदीपोभव:’ का यही अर्थ है और इसी अर्थ को दीपावली देती है-एक संदेश के रूप में।
यहां तो विजयी पाण्डवों को निर्विघ्न राज करने और सदा आनंदित रहने की प्रार्थना तब दुर्योधन भी करता है, जब वह भीम से गदा युद्घ में पराजित होकर जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहा था और बलराम उसकी नियम विरूद्घ की गयी ‘हत्या’ को देखकर भीम पर आक्रोशित हो उठते हैं, तब दुर्योधन बड़ी पते की बात कहता है-
जीवन्तु ते गुरूकुलस्यनिवाय मेघा:।
वैरंच विग्रह कथा च वयं च नष्टा:।
”अर्थात गुरूकुल की अग्नि को बुझाने वाले अब पाण्डवरूपी बादल सुरक्षित रहें-उनके जीवन में आनंद का प्रकाश रहे। अब तो वैर ही समाप्त हो गया साथ ही वैर रखने वाले हम भी समाप्त हो गये-अब आप उन्हें ना छेड़ें, अर्थात कुछ न कहें।”
इसी समय भीम आवेश में धरती पर गिरे दुर्योधन को लात मारने का ‘अधर्म’ करता है तो यह देखकर धर्मराज युधिष्ठिर की आत्मा चीत्कार कर उठती है। कहते हैं-‘भीम आखिर दुर्योधन अपना ही भाई है, यदि उसके साथ कोई शत्रुता भी थी, तो वह अब समाप्त हो गयी है। वह राजा रहा है, उसका ऐसा अपमान मत करो उसे उठाओ और राजकीय सम्मान के साथ उसका अंतिम संस्कार करने की तैयारी करो।’
सचमुच भारत की संस्कृति वैर भुलाने की संस्कृति है, यह आग में घी डालती (यज्ञ के समय) है-पर शांति के लिए, जबकि सारी दुनिया आग में घी डालती है-विनाश के लिए। है न मेरा भारत महान। सचमुच भारत को समझने की आवश्यकता है। आज मोदी सरकार ‘सबका साथ-सबका विकास’ के आधार पर कार्य कर रही है-उनका यह नारा हो, चाहे उनकी अपनी कार्यशैली हो, हमें इस पर कुछ नही कहना। हम तो केवल यह जानते हैं कि ‘सबका साथ-सबका विकास’ भारत की मूल चेतना में समाहित है और यह मूल चेतना ही भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की निर्मात्री है। यदि हम हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि न रहकर पहले भारतीय बन जाएं और तब दीपावली को देखें तो पता चलेगा कि दीप से दीप जलार्र्ते-जलाते हम सब दीप्ति मान हो उठे हैं, और सब एक साथ एक ही गीत-संगीत के फव्वारे में स्नान कर रहे हैं, ज्योति के उपासक ज्योति स्नान कर भारत को (आभा-में रत=भारत) ‘ज्योति स्थान’ बनाने की साधना में लीन हो गये हैं और सर्वत्र एक ही ज्योति (प्यारा प्रभु) की अनुभूति कर रहे हैं। सब अलग-अलग होकर भी ‘एक’ की साधना में लगे हैं। सबकी पहचान भी जीवित है और सबकी आवाज भी जीवित है-पर ‘ज्योति स्नान’ से सबकी पहचान ‘एक’ के लिए समर्पित हो गयी है और सबकी आवाज बहुत ही सकारात्मक हो गयी है, ना किसी को ‘वंदेमातरम्’ से विरोध है और ना ही किसी को भारत को माता कहने से विरोध है।
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