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अथर्ववेद (5/11/8) में आया है कि जिस राष्ट्र में विद्वानों को कष्ट पहुंचता है, वह राष्ट्र विपत्तियों से भर जाता है। कमजोर हो जाता है। परिणामस्वरूप ऐसा राष्ट्र नष्ट हो जाता है। जैसे टूटी हुई नाव पानी में डूब जाती है, वैसे ही जिस राष्ट्र में राष्ट्रहितकारी विद्वानों के परामर्शों को या नेताओं की राष्ट्रहितकारी नीतियों को नही माना जाता है, उनके सुझावों की या नीतियों की उपेक्षा होती है वह राष्ट्र गलत नीतियों के कारण नष्ट हो जाता है।
यह राजनीति का गुर है कि राष्ट्रहितकारी नीतियों का समर्थन प्रत्येक नेता और प्रत्येक देशवासी के द्वारा किया जाना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रहितकारी सुझाव देता है तो उसे भी स्वीकार करना देश की सरकार का दायित्व होता है। क्योंकि राष्ट्र का संचालन करना केवल सरकार का ही कार्य नही है, अपितु देश के प्रत्येक नागरिक का कार्य है इसलिए कोई भी संवेदनशील व जागरूक नागरिक देशहित में अपनी सरकार को कोई भी परामर्श दे सकता है। जिसे शासकवर्ग के द्वारा यह सोचकर रद्दी की टोकरी में नही फेंकना चाहिए कि शासन चलाना हमारा काम है, देश के नागरिकों को तो शासित रहता है। जहां यह भावना आ जाती है-वहीं देश का समाज शासक और शासित दो भागों में बंट जाता है, जिसका अंतिम परिणाम शासक वर्ग के अधिनायकवाद में परिवर्तित होकर हमारे सामने आता है। यह स्थिति किसी भी देश के लिए अच्छी नही मानी जा सकती।
अभी पिछले दिनों भारत सरकार ने 500 व 1000 के नोट बदलने का निर्णय लिया। प्रधानमंत्री मोदी को देश की जनता ने कुछ कष्ट सहन करके भी अपना पूर्ण समर्थन दिया है। देश के लोग लंबी-लंबी कतारों में पैसे बदलवाने के लिए खड़े रहे, परंतु उन्होंने कोई कष्ट महसूस नही किया और अंतिम रूप से यह मानते रहे कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो कुछ भी किया है-वह देशहित में किया है। देश की जनता सडक़ों पर आयी पर अपने देश के प्रधानमंत्री के विरोध में न आकर उनके समर्थन में आयी।
देश की जनता का मूड समझकर हमारे विपक्षी नेताओं की हिम्मत नही हुई कि उनमें से कोई कहीं पर ‘जयप्रकाश नारायण’ बनकर उभर आता। सब अपने-अपने घरों से और अपनी-अपनी रजाइयों से मुंह निकालकर सरकार का औपचाारिक विरोध करते नजर आये। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अवश्य कुछ ऐसा करने का मन बनाया कि जिससे मोदी सरकार को हिलाया जाए या उनके विरूद्घ बन रहे माहौल को ‘कैश’ किया जाए। परंतु इसमें उन्हें भी सफलता नही मिली। देश के लोगों का दर्द इतना नगण्य रहा है कि वह मोदी सरकार के विरूद्घ नेताओं को ऑक्सीजन नही दे पाया। इसके विपरीत नेताओं के दिल में इतना ‘भारी दर्द’ है कि उसे आप बयान नही कर सकते। रातों-रात उनका ‘काला धन’ कागज के टुकड़ों में बदल गया। कई-कई पुश्तों के खाने के लिए जिन लोगों ने राजनीति नाम के व्यापार से ‘मोटा माल’ कमा लिया था अब वे जनता के दर्द को देखें कि अपने दर्द को देखें? कैसी अजीब स्थिति में फंसे खड़े हैं-बेचारे कि जनता के दर्द को भी नही उठा सकते और ना ही अपने दर्द को बयान कर सकते हैं। ‘न खुदा ही मिला न विसाले सनम’ वाली स्थिति नेताओं की बन गयी है। कांग्रेस के राहुल गांधी ने फिर अपना बचकाना नेतृत्व दिखाया है, कोई भी ठोस बयान या ठोस कार्यक्रम उनकी ओर से नही आया है, बेचारे अभी तक अंतद्र्वन्द्व में फंसे खड़े हैं।
ऐसे में बिहार ने 1977 की यादें फिर ताजा कर दी हैं, जहां से उस समय एक ‘जयप्रकाश नारायण’ का उदय हुआ था। जिनकी अंतरात्मा ने उन्हें उस समय की इंदिरा सरकार की नीतियों के विरूद्घ मैदान में उतरने की प्रेरणा दी थी और उन्होंने अपने ‘विवेक’ का परिचय दिया है, और उसके नेता नीतीश कुमार ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि 500 व 1000 के नोट बदलने के निर्णय पर वह मोदी के साथ हैं। कुल मिलाकर बिहार ने देश के विपक्ष को फिर दो आंखें देने का काम किया है। उसे बताया है कि राष्ट्रहितकारी नीतियों को लागू करने में हमें एक रहना चाहिए। देश की अनेकों समस्याओं में से सबसे बड़ी समस्या कालाधन ही रही है, जिसे हमने समझकर भी ना समझने का प्रयास किया है। नीतीश बाबू ने उसे समझा है और राजनीति में मतभेदों को राजनीति तक सीमित रखकर लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप यह दिखाने का साहस किया है कि वह राष्ट्रहित में लिए गये निर्णयों पर मोदी सरकार के साथ हैं। स्वस्थ लोकतांत्रिक चिंतन का प्रदर्शन करती नीतीश बाबू की इस टिप्पणी के लोग चाहे जो अर्थ लगायें पर उनके विषय में यह सत्य है कि वे जो कुछ बोलते हैं, उसमें कुछ दम होता है। वह राष्ट्रधर्म को ध्यान में रखकर बोले हैं इसलिए उनका बयान स्वागत योग्य है। जबकि कांग्रेस के एक नेता ने मुसोलिनी, हिटलर आदि के साथ मोदी की तुलना करके फिर यह साबित कर दिया है कि कांग्रेस इस समय मानसिक रूप से वैचारिक दीवालियेपन की स्थिति में आ गयी है। उसे सरकार की नीयत और नीति की आलोचना करने का पूरा अधिकार है पर शब्दों की गरिमा भी बनी रहे-यह उसका कत्र्तव्य भी है। अच्छा तो यह होगा कि कांग्रेस मोदी सरकार के नोटबंदी के निर्णय में रह गयी किसी खामी की ओर सरकार का ध्यान दिलाये और राष्ट्रहित में उसे सरकार से लागू कराने पर अपना दबाव बनाये। कांग्रेस इस समय नेताविहीन भी है। ऐसे में उसके तीर अंधेरे में ही छूट रहे हैं और उसे नही पता कि ये किसे लग रहे हैं? हां, नीतीश बाबू ने अपना बयान देकर अवश्य कांग्रेस को बता दिया है कि तीर देखकर चलाओ, इनसे मां भारती ही लहूलुहान हो रही है। हो सकता है कि कांग्रेस नेतृत्व ‘मां भारती’ की पीड़ा को समझेगा।
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