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नगर स्वराज की चुनौतियाँ बनाम "राज बादशाह का, हुकुम कम्पनी बहादुर का"

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
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भारतीय इतिहास में फ्रांसीसी  सेनापति मार्क बज्जी, लार्ड क्लाइव, वारेन हेस्टिंग्स, कार्नवालिस जैसे चरित्रों ने ने भारतीय साम्राज्य के स्वतंत्र क्षत्रपों पर अधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी की मर्जी के खिलाफ अपने दम पर  ही किया था। जब देश महारानी विक्टोरिया के साम्राज्य के अधीन होने की स्थिति बनी जिसमे कि देश का नियंत्रण ब्रिटिश गृह मंत्रालय द्वारा नियुक्त गवर्नर जनरल द्वारा किया जाना थे तो ऐसी दशा में कंपनी ने देश का नियंत्रण इंडियन सिविल सर्विसेज के अधीन करके ब्यूरोक्रेसी को  सर्वाधिकार संपन्न बनाया और उसकी जवाबदेही किसी को भी नहीं रही। इन हालातों को देश के कई प्रमुख विचारक देश में जवाबदेही या जिम्मेदारी न होने की उत्पत्ति मानते हैं जो कि आज के हालातों में यथावत जारी है  । आधुनिक भारत में नागरिक स्वायत्तता की आधारशिला  लार्ड मेयो ने रखी, उसका नजरिया अलग था जिसे ब्रिटिश राज में दूसरे बहुत से शासकों ने उचित सम्मान नहीं दिया। लेकिन इसी क्रम में हमारे तत्कालीन नेतृत्व ने ईंट गारे  का काम किया और  आज़ादी की लड़ाई के साथ-साथ इस नयी नागरिक व्यवस्था के लिए जन समर्थन तैयार किया । जो कि आगे चलकर लोकतान्त्रिक व्यवस्था का आधार  बना। समय के साथ यह नागरिक राज व्यवस्था जल निगम, a2z और राज्य गंगा नदी घाटी प्राधिकरण द्वारा अतिक्रमण कर ली गयी और नतीजा सामने है जिसमे वार्ड स्तर की जनसमस्याओं की जिम्मेदारी उठाने को कोई तैयार नहीं । ब्रिटिश सिविल सर्विसेज संस्थानों के आज़ादी के बाद के अवतार भारतीय प्रशासनिक सेवा में जल निगम की सीमाएं नियत होने के बाद विश्व बैंक जैसे ग्लोबल क्षत्रपों ने समितियों से शासन चलाने की इच्छा ज़ाहिर की जिसमे इंजीनियर की भूमिका सबसे बड़ी मान ली गयी । यह व्यवस्था लागू करने के नतीजों की पोल हाल में एन आर एच एम् घोटाले ने खोली है जो कि आप सभी के सामने है। हाल ही में उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों  में इसी प्रकार के कर्मकांड की पहली कड़ी समिति और राज्य नदी घाटी प्राधिकरण की नयी व्यवस्था में गंगा प्रदुषण नियंत्रण के नाम पर परवान चढ़ी है।

स्थानीय निकायों की दुर्दशा जनहित के लिए एक आत्मघाती व्यवस्था में तब्दील हो चुकी है जहाँ जनप्रतिनिधियों के लिए  नगर निगम का पार्षद होना प्रशासनिक विफलताओं  की जिम्मेदारी उठाने भर का काम बन के रह गया है। जबकि  पंचायतों के सन्दर्भ में कुछ रियायतें मुहैया हुई हैं लेकिन पार्षदों के लिए वो तसल्ली भी नसीब नहीं।

ऐसे में स्थानीय नागरिक व्यवस्था के बचाव के रास्ते में क्षेत्रीय स्तर पर  इस दुर्दशा को स्वीकार करना पहली शर्त है। दूसरी महत्वपूर्ण भूमिका यह होगी कि नगर पार्षद राज्य क्षत्रपों से जनहित में स्थानीय निकायों के अधिकारों की बहाली की मांग करें। यद्यपि आज की व्यवस्था में उनके अधिकार कुछ भी नहीं जैसे हैं लेकिन जनता जनार्दन और युवा साथियों के साथ में बेहतर स्थानीय सुशासन की संभावनाओं को तलाश किया जाना है और इसे ही शुरुआत कहा जा सकता है।

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