Menu
blogid : 2541 postid : 362

कानपुर के नव समाजशास्त्रियों का कानपुर परिवर्तन: परिकल्पना और वास्तविकता.

राकेश मिश्र कानपुर
राकेश मिश्र कानपुर
  • 361 Posts
  • 196 Comments

यह इस शहर की मिटटी है जिसने अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें इतनी बुरी तरह हिला दीं कि बौखलाहट में भारतभूमि को भयाक्रांत करने के लिए उन्होंने १३३ भारतीय क्रांतिकारियों को फूलबाग के बूढ़े बरगद पर फांसी देकर मानवता को कलंकित किया. सिर्फ इतने से बात नहीं बनी तो उन्होंने अपना एक डिप्लोमेटिक कार्ड खेला इस शहर का औद्योगीकरण किया और पुरे शहर को लेबर कालोनी में तब्दील करके जनमानस को मुख्यधारा से अलग करने का प्रयास किया. यह देश का दुर्भाग्य रहा कि वे गोरे अपनी मानस औलादें इस शहर में भी छोड़ गए जिन्होंने उन कारखानों पर गर्व किया और शहर को “लेबर कालोनी” न मान के “मैनचेस्टर ऑफ़ ईस्ट” कह के अपनी ही पीठ ठोंकी. इस आर्थिक सामाजिक दौर में पिछड़े हुए लोगों के लिए अगुवा बने पूंजीवादी और पूंजीपतियों के चापलूस “धन से धर्म” करने के लिए तमाम तरह हथकंडे तो अपना रहे हैं लेकिन मुख्यधारा की जान यानि आर्थिक सामाजिक रूप से पिछड़े जनमानस के साथ उनका व्यवहार सदैव घर के नौकरों जैसा ही पाया जाता है. ऐसे में वह बहुसंख्यक जनमानस ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवियों से सदैव दूरी बना के स्वयं नहीं चलता बल्कि सहयोग के नाम पर बार-बार हेय दृष्टि से देखा जाना नागवार मानता है. और मै इसे जायज  मानता हूँ.

कानपूर शहर में सामाजिक विकास के लिए तीन तरह के समूह या संस्थान  पाए जाते हैं…. एक जो पेशेवर दलाल हैं दुसरे बहुधा जोश-जोश में बने हुए संसथान जो की कालांतर में समाप्त या निष्क्रिय हो जाते हैं अथवा ईमानदारी और नाकामी की वजह से हीनभावना से ग्रस्तरहते हैं, तीसरा और सबसे सशक्त पक्ष उन लोगों का होता है जो जीवन के अंतिम दिनों में हरिनाम जपने की बजाय सामाजिकता का चोला ओढना ज्यादा पसंद करते हैं, वे इसकी वजह बहुधा “नाम और नामा” ही बताते हैं. ऐसे लोगों से मै सदैव यही प्रश्न करना चाहता हूँ कि यदि जुवान के चौथे दौर कि बजाय जीवन के साथ ही इस सामाजिक उद्देश्य को सम्मान दिया होता तो आज देश कि ऐसी नौबत ही क्यों आती. उनके मुख्य और गौण (अप्रकट ) उद्देश्य क्या होते हैं…राजनैतिक महत्वकांक्षाएं और व्यापारिक हितों के जुडाव को वे कभी स्वीकार ही नहीं करते… इसका अंदाज़ा एक साधारण व्यक्ति लगा ही नहीं सकता…

उदारहरण दे तौर पर मै  आपको बताता हूँ, मै और मेरे कुछ मित्र जो कानपूर के प्रतिष्ठित उद्योगों के मालिक हैं विचारक है एक  सामाजिक कार्यकर्ता भी..हम लोगों ने एक सामाजिक संस्था  के माध्यम से शहर के २५ बीमार स्कूलों (ये कहना ज्यादा गलत नहीं होगा कि सरकार ने ही इन स्कूलों को बीमार किया है.) को गोद लेकर उनमे सुधार कार्य शुरू किये, बताने की आवश्यकता नहीं की इन सरकारी स्कूलों में अति निर्धन या निर्धन वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं, , उन बच्चों से नियमित वार्तालाप करते हैं और उनके माता-पिता से भी, इन स्कूलों  में हम निश्चित मानदेय के शिक्षक नियुक्त करते हैं और उनके वेतन,  विद्यालय के प्रबंधन और दुसरे खर्चों को अपने स्तर पर वहां करते हैं क्योंकि ये विद्यालय सरकारी उपेक्षा के चलते इस हालत में पहुंचे हैं. बच्चे और उनके माता-पिता हमारा सम्मान करते हैं और हमारे अनुरूप सही गलत का फैसला  करते हैं. अब   मान लीजिये की हम सुचारू रुप  से इसका सञ्चालन करते हैं और कल को सरकार  को एक प्रस्ताव देते हैं की इन विद्यालयों का विनिवेश (privatisation) किया जाए तो निश्चित रूप से हमारे साथ होगी और सरकार के पास इसको माने के सिवा कोई रास्ता नहीं होगा (और जो नहीं माने उनके लिए हम पैसा और शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं.). अब यदि हम इन स्कूलों को दुसरे तरीके से चलाने लगें  अपनी नियत बदल दें और सर्व शिक्षा अभियान के अनुरूप काम न करके जनता से मोटी  फीस वसूलने लगें तो क्या होगा? दुसरे उद्देश्यों में राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं भी पूरी करने की कोशिश कर सकते हैं.. इसके साथ ही अगर शहर में १००-२०० करोड़ निवेश करके कुछ औद्योगिक गतिविधियों को संचालित करें तो निश्चित रूप से जन समर्थन हमारे साथ होगा ही.. मीडिया को विज्ञापन देने और पैसा खिला के अपने साथ करने में कितनी देर लगेगी…इस प्रकार से शासन पर पूंजी यानी कार्पोक्रेसी  (corpocracy)  हावी हो जाती है. इस पुरे  देश की यही हालत है…. जनता को यही नहीं पता सही क्या है और गलत क्या है?

एक पक्ष और भी स्पष्ट करना लाजिमी है की ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी समाजशास्त्री और पूंजी समर्थित ज्यादातर जो विकासवाद के मॉडल सुझाते पाए जाते हैं…कोई अगर कहीं विदेश घूम के आता है और अपने अनुभवों को बताता है तो उसका प्रायोगिक क्रियान्वयन करने को सभी तत्पर दिखाई देते हैं.. ऐसे में शासन और सत्ता प्रतिष्ठान में पूंजी की पकड़ सदैव उनकी सहयोगी होती है.

.गाँधी के स्वदेशी और स्वराज की वकालत करते तो देखा जा सकता है लेकिन शहर के लिए स्वदेशी और स्वराज क्या है इसका अंदाज़ा एक बच्चा उनसे ज्यादा बेहतर बता सकता है., विकास के  स्थायित्व की बजाये तात्कालिक समाधानों की खोज उनको विदेशी माडलों में ही दिखाई देती है इसलिए प्राथमिकता होती है…. शायद इसकी मूल वजह छपास हो.

अब इस शहर के आज़ादी के बाद के औद्योगिक स्वरुप की चर्चा  करें तो हम पाएंगे की इस शहर ने किसी ज़माने में  सचमुच में बहुत उन्नति की थी. लेकिन आज के हालत ये हैं कि लघु, छोटी और मझोली इकाइयों मिला के जो 8000 के ऊपर हुआ करती थी उनमे से तीन चौथाई आज रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत हैं. कुल मिला के 6000 के आस-पास रुग्ण,  मृतप्राय अथवा मृत इकाइयों के पुनर्योजन  में लाखों लोगों के रोजगार और स्थायी विकास की अपर संभावनाएं मौजूद हैं.  लेकिन ये पश्चिम परस्त समाजशास्त्री बहुधा इस मुद्दे को लाल झंडे वालों का खिलौना मानते हैं, और उनके सरपरस्त  उद्योगपति बहुधा सरकार को गली देते पाए जाते हैं.

“एकोहम द्वितियोनास्ति” की पूर्वाग्रह   पसंद ये समाजशास्त्री युवा वर्ग को वे सदैव हाशिये पर ही रखते हैं.

अब देखते हैं शहर के युवा और शहर के  “आखिरी आदमी” की वर्तमान परिस्थिति ..जो कि असंगठित 47 प्रतिशत (बहुसंख्यक हैं)..413 कच्ची बस्तियां..

.

अब शहर के ऐसे  तंत्र में अगर नेतृत्व प्रतिभा खोजने जायेंगे तो अँधेरे में तीर चलने जैसा काम नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा की पहले शिक्षा का समग्र सामाजिक स्वरुप तय करें. युवा शक्ति का संगठित केंद्र विद्यालय और महाविद्यालय हैं (वर्तमान छात्र संख्या लगभग 5 लाख.). उनको मुख्यधारा के समीप लाना हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए.

“विचार से कार्य तक” खुले मंचों को स्थापित करें.

यह आवश्यक नहीं कि उनको मुख्यधारा की पत्तेचाट राजनीति   के घिनौने दलदल (छात्रसंघ )में धकेल दिया जाए लेकिन सामाजिक समरसता का अस्तित्व और महत्व नहीं पता होगा तो नैतिक मूल्यों पर आधारित युवा नेतृत्व प्रतिभा कैसे बनेगी.???

जहाँ तक “आपने-मैंने”, का सवाल है. यह विचारधारा लेकर कानपुर मंडल से 40000 से ज्यादा स्वयं सेवी संगठन कार्यरत हैं… जिनके समाजशास्त्र का  ज़िक्र मै ऊपर कर चुका हूँ.. 413 कच्ची बस्तियों में से अधिकांश में मेरा व्यक्तिगत अनुभव यह कहता है कि “आपने-मैंने” जैसे विचारों ने उन बस्तियों के लोगों में असुरक्षा कि भावना और अविश्वास ही बढाया है. “आपने-मैंने” की ही परिणति है की देश में 900 से ज्यादा राजनितिक दल हैं. “आपने-मैंने” की विचारधारा ने देश का सर्वाधिक अहित किया है. शहर हमारा है, देश हमारा है. “आपने-मैंने” की जगह “हमने” अधिक सार्थक रहेगा.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh