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कुत्ते का बच्चा……..

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बड़े दिनों बाद अपने पैतृक शहर पटियाला जाने का मौका मिला। वैसे गया तो चंडीगढ़ था, वहां से लौटते वक्त देर हो गई और मुझे पटियाला ही ठहरना पड़ा। मौसम में ठंडक बहुत अधिक थी तो अपने मित्र अमन को मैंने फोन किया और उसे बता दिया कि आज की शाम पटियाला में ही बीतेगी। बस स्टैड उतरा तो अमन मुझे लेने के पहुंचा हुआ था। कई दिनों बाद फ्री-माइंड होकर मिले और बतियाने का मन बन गया। मौसम के मिजाज के मुताबिक रम से महफिल में गर्मी लाना तय हुआ और दोनों ही छोटी बारांदरी में स्थित हमारे चिर-परिचित मीटिंग प्वाइंट पर पहुंच गए। अभी तैयारी चल ही रही थी कि जतिंदर तरैं (मेरे ही प्रोफेशन का एक और मित्र) का फोन अमन को आया। कुछ और बात हो इससे पहले ही अमन ने बता दिया कि रमन आया हुआ है जल्दी पहुंच जा।
फेवरेट ब्रांड की रम खरीद ली गई और इतने में ही जतिंदर भी पहुंच गया। उसका थोड़ा मूड़ अपसेट सा दिखा, पूछने पर बताया कि सैंडी (उसकी लेबरे नस्ल की कुतिया) के पप्स को लाया था, लेकिन सौदा तय नहीं हुआ, इसलिए अभी भी गाड़ी में ही हैं। मूड़ इतना खराब था कि दो-दो मोटे-मोटे पैग कब गले से नीचे उतर गए ध्यान ही नहीं दिया।
बातें चलीं, पुराने दोस्तों की, कामकाज की, फ्यूचर की और इसी दौरान फिर से पप्स का मुद्दा छिड़ गया। जतिंदर बोला कि अब वह यह तीनों पप्स घर वापस नहीं लेकर जाएगा। अमन बोल उठा, यार बिजनेस तो तूने कर लिया, लेकिन यह पप्स तुझे घर वापस नहीं लेजाने हैं तो किसी पहचान वाले को गिफ्ट कर। इससे तेरे दो काम निपट जाएंगे। आइडिया जंचा तो गिफ्ट हासिल करने वाले लोगों की तलाश की जाने लगी। एक वकील मित्र को कुत्ते का बच्चा देना तय हो गया। दो अभी भी बाकी थे। अब तक लगातार चलते रम के पैगों की वजह से मुझे भी सरूर हो चुका था। मेरे मुंह से अचानक निकल गया कि एक कुत्ते का बच्चा मै लेके जाउंगा।
अरे यह क्या? मेरे मुंह से यह क्या निकल गया था? मै तो कुत्ते पालने का शौक कभी भी नहीं रखता। अभी मेरे मन में यह उधेड़-बुन चल ही रही थी कि अमन ने सवाल दाग दिया, साले मेरे घर आकर तो बड़ा कहा करता है कि क्या कुत्ता पाल रखा है, तेरे होते इसकी जरूरत थी क्या? अब क्या हुआ? अचानक कुत्ता प्रेम कहां से पनप उठा।
अब तलक मै भी संभल चुका था। हालांकि मैं कुत्तों से नफरत नहीं करता, लेकिन इतना भी प्रेम नहीं करता कि कुत्ते को घर ले आउं। लेकिन अब जो कह चुका था उसे दुरुस्त करते हुए मैने नया पैतरा चल दिया। कहा मेरे ससुराल वालों को चाहिए। बात तय हो गई और एक कुत्ते का बच्चा वकील मनोज का एक मेरा हो गया। एक जो बाकी बचा उसे अमन के एक परिचित परिवार को सौंप दिया गया।
क्योंकि मै कुत्ता प्रेमी नहीं हूं, इसलिए तय हुआ कि सुबह ट्रेन के टाइम तक कुत्ते का वह बच्चा, जिसका नामकरण हमने लक्की कर दिया था अमन के घर रहेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि अमन को बचपन से ही कुत्ते पालने का शौक और एक्सपीरिएंस है।
ट्रेन सुबह छह बजे पटियाला से बठिंडा के लिए निकलती थी। सुबह पांच बजे माता जी ने उठा दिया। नाश्ता करके पड़ोस में रहने वाले रविंदर भोला को फोन किया और स्टेशन तक छोड़ आने की ड्यूटी लगा दी। फिर अचानक याद आया कि बीती रात मै एक कुत्ते के बच्चे का मालिक बना था और उसे भी ट्रेन में साथ लेकर जाना है। माता को बताया और उसे लेजाने के लिए किसी पैकेज की मांग कर डाली। काफी तलाश के बाद बर्जर पेंट्स की बीस किलो वाली बाल्टी मां ने थमा दी और कुछ कपड़े उसमें रख दिए ताकि गर्मी बनी रहे।
रविंदर को साथ लेकर पहले स्टेशन पहुंचे ताकि ट्रेन की टिकट खरीद ली जाए। उसे अमन के घर भेजा और कुत्ते के बच्चे को ले आने को कह दिया। ट्रेन एक घंटा देरी से थी , सो आसाम से कुत्ते का बच्चा स्टेशन तक पहुंच गया।
आते ही उसकी शरारतें शुरू हो गईं और इधर-उधर दौडऩे लगा। अभी एक ही माह का था, लेकिन पूरा शैतान, यह अमन ने बताया और मुझे मानना पड़ा कि यह काफी एक्टिव है।
इसका पता मुझे ट्रेन में बैठने से चंद मिनट पहले ही चल गया। एकाएक बाल्टी का ढक्कन खुला और कुत्ते का बच्चा कूदकर बाहर प्लेटफार्म पर दौड़ निकला। वह आगे-आगे और मैं उसके पीछे। प्लेटफार्म पर गाड़ी का इंतजार कर रहा हर व्यक्ति हमें ही देखने लगा और कई तो मुस्कराते हुए भी दिखे।
अंतत: उसे पकड़ा और दोबारा बाल्टी में रखा, ढक्कन जो उपर से थोड़ा काट दिया ताकि वह मुंह बाहर निकाल सके, जोर से दबाकर पकड़ लिया। गाड़ी आ गई और गनीमत यह के उसमें काफी संख्या में सीटें खाली थीं। जाकर बैठा ही था कि ट्रेन चल निकली। ठंड होने के कारण सभी खिड़कियां और दरवाजे बंद थे और लोग एक दूसरे के साथ चिपककर बैठे धीमे-धीमे बतिया रहे थे। इसी दौरान कुत्ते के बच्चे ने जोर से चिआऊं-चिआऊं की आवाजें निकालीं और झट से गर्दन बाल्टी के बाहर कर ली। फिर से लोगों का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ। डिब्बे में सवार तकरीबन हर छोटा बच्चा एक के बाद एक अपने दादा या पिता के साथ मेरे पास आते और कुत्ते के बच्चे को निहार कर खुश होकर लौटते रहे। थोड़ी देर मस्ती करने के बाद और ब्रेड-दूध (जो मै साथ लेकर चला था) चट करने के बाद कुत्ते का बच्चा यानि लक्की आराम से बाल्टी में सो गया। मुझे काफी सकून मिला और मै मन ही मन उसके दो घंटे तक सोते रहने की कामना करने लगा ताकि मुझे और मेहनत न करनी पड़े।
तपा स्टेशन के नजदीक आकर गाड़ी में टीटी साहेब चढ़ आए और टिकट चेक करने लगे। मैं डिब्बे की दरवाजे के नजदीक वाली ही सीट पर बैठा था सो मेरा नंबर सबसे बाद में आया। सामने वाली सीट पर बैठे दो युवकों के पास शॉल के बंडल थे, जिसकी उन्होंने पर्ची नहीं कटवाई थी सो टीटी वहीं बैठ गया। टीटी का दूसरा साथी टीटी भी एक बेटिकट यात्री को पकड़ वहीं आकर बैठ गया। उनकी बातों से पता चला कि सामान के लिए पार्सल घर से टिकट बनती है और ठीक इसी तरह कुत्ता,बिल्ली को साथ लाने के लिए भी टिकट लगती है। मुझे अचानक शॉक लगा, कुत्ते का बच्चा तो मेरे पास भी है और उसकी भी टिकट लगती है, यह तो मुझे पता ही नहीं था। कुत्ते के कारण होने वाली बेइज्जती का सोचते ही मैने बड़ी शालीनता के साथ टीटी साहेब से पूछा कि क्या कुत्ते के बच्चे की भी टिकट लगती है तो उन्होंने कहा हां बीस किलो माल के चार्ज लगते है। मैने कहा कि मुझे ज्ञात नहीं था, लेकिन मेरे पास भी एक कुत्ते का बच्चा है। मेरा परिचय लेने पर उन्होंने मुझे इस ताकीद के साथ छोड़ दिया कि आगे से इसकी बुकिंग करवाकर ही सफर कीजिएगा। मेरी जान में जान आई और घूरते हुए मैने उस कुत्ते के बच्चे की तरफ देखा। वह आराम से नींद ले रहा था। खैर बठिंडा स्टेशन पहुंचा तो अपने क्लीग शैली को बुला लिया और आधे घंटे बाद हम लोग मेरे घर पहुंच गए। उसकी फिर से पेट-पूजा करवाकर छत पर खेलने के लिए छोड़ दिया। दोपहर बाद पत्नी को मायके जाना था, साला भी आया हुआ था, सो कुछ ही घंटों बाद वह कुत्ते का बच्चा यानि लक्की मेरे ससुराल पहुंच गया।

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