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मतदान

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“यार कल बैंक वालों का फोन आया था, कह रहे थे कि लोन की किश्त दो माह से भरी नहीं गई है। यदि जल्दी पैसा जमा नहीं करवाया तो वो लोग मेरे मकान को जब्त कर लेंगे। क्या कुछ हो सकता है। थोड़ा तुम ही उधार दे दो।“ बूटा सिंह की यह बात सुनते ही उसके सहकर्मी नरेश ने सिर झटक दिया। वह बोला “यार तुम्हे तो पता ही है कि वेतन कितना मिलता है और परिवार का गुजारा कैसा है। ऐसे में साला सेविंग तो हो ही नहीं पाता। भाई किसी और से पूछ ले।“
नरेश की बात सुनकर बूटा सिंह फिर से उदास हो गया। वह सोच में पड़ गया कि अब इकट्ठे 16 हजार रुपए का इंतजाम कहां से होगा। अगर कहीं से थोड़ा-बहुत उधार मिल भी गया तो सारी सेलरी देने के बाद उसके परिवार का गुजारा कैसे होगा कि इतने में ही उसने मेजर सिंह को चहकते हुए आफिस की तरफ आते देखा और उम्मीद भरी आंखों से उसकी तरफ बढ़ चला।
बूटा सिंह और मेजर दोनों ही चंडीगढ़ के एक कारपोरेट कार्यालय में सिक्योरिटी गार्ड के तौर पर तैनात थे। नरेश भी उसी कार्यालय में आफिस ब्याय के तौर पर तैनात था। बूटा सिंह कुछ ही साल पहले अपने गांव से चंडीगढ़ में आ गया था और बेटा-बेटी को भी यहीं पर सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिए लगा दिया था। पढ़ाई का माहौल मिलने पर दोनों ही बच्चे होनहार साबित हुए। बेटी इंजीनियरिंग के फाइनल ईयर में थी और बेटा बारहवीं पहली श्रेणी में पास करने के बाद आर्टस स्ट्रीम में आगे बढ़ रहा था।
बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए बूटा सिंह ने काफी मेहनत की और पहले-पहल शरीर के दम पर वह नौकरी के बाद किराए पर रिक्शा भी चलाता रहा और कभी कभार मंडी में आढ़तियों के पास भी काम करता रहा। जिससे अच्छी कमाई हो जाती और उसका चंडीगढ़ में रहने का खर्च व बच्चों की फीस वगैरह आसानी से निकल जाती थी। बूटा सिंह की पत्नी वीरांवाली भी काफी समझदार थी और घर के नजदीक रहने वाली औरतों का सिलाई-कढ़ाई का काम करके थोड़ा-बहुत योगदान देती रहती थी। बच्चों की उम्र और पढाई बढ़ने के साथ ही खर्च बढ़ता गया, लेकिन बूटा सिंह का शरीर उसका साथ छोड़ने लगा, जाहिर सी बात है कि उम्रदराज होने पर जवानी के माफिक मेहनत नहीं हो पाती।
हालात बदत्तर तब हो गए जब उसकी बेटी को इंजीनियरिंग के लिए एडमिशन लेना था। जो थोड़ा-बहुत बचाकर घर में रखा हुआ था, उसके इलावा भी करीबन सवा लाख रुपए और चाहिए थे, ताकि कालेज की फीस भरी जा सके। काफी हाथ पैर मारे, लेकिन कहीं से इंतजाम नहीं हो पाया। किसी परिचित ने पर्सनल लोन की बात कही तो वह उसे जच गई। जैसे तैसे करके बैंक के एजेंट के कहे अनुसार कागजात पूरे किए और हथेली भी गर्म की, ताकि समय रहते उसकी बेटी का एडमिशन हो जाए। हुआ भी ऐसा ही, हथेली की गर्मी ने कमाल दिखाया और दिनों में ही उसका लोन पास हो गया, जिससे मिशन एडमिशन पूरा कर लिया गया। हालांकि कारपोरेट हाउस में होने के कारण उसका वेतन अच्छा था, लेकिन कर्ज की किश्त व ब्याज के कारण वह कम लगने लगा था और धीरे-धीरे परिवार का बजट डगमगा गया। बूटा सिंह ने अंततः एक अन्य जगह रात को चौकीदारी करने की नौकरी भी कर ली ताकि वो आर्थिक हालात को काबू में रख सके, हालांकि वह चौकीदारी कम और नींद की आपूर्ति ज्यादा करता था। लेकिन गनीमत रही कि कोई अप्रत्याशित घटना नहीं हुई।
पार्किंग लॉट को क्रास करके नजदीक पहुंचे मेजर सिंह से बूटा ने कटाक्ष भरी आवाज में पूछ ही लिया, क्यों बाई, किवें फुल वांगू खिड़िया आउंदैं, की हो गया।
मेजर ने भी अपनी ठेठ ग्रामीण बोली में जवाब दिया। बोला, बाई जी, की दस्सां, आएं लगदै जिवें लाटरी निकल गई। आपणे पिंड दे कोठी वाले सरदारां ने बुलाया सी, वोटां खातर। कैंहदे सी कि इस वार मुकाबला भारी है, वोट सानूं ही पाइओ। नाले मैनूं आह 10 हजार रुपए वी दे दित्ते।
बूटा सिंह और मेजर दोनों एक ही गांव के रहने वाले थे। मेजर सिंह भी बूटा की ही तरह सिक्योरिटी गार्ड ही था, लेकिन पुश्तैनी जमीन होने व अकेला मालिक होने के कारण वह अपना जीवन बढ़िया ढंग से चला रहा था।
पैसों की बात सुनकर बूटा सिंह को काफी हैरानी हुई। उसके पूछने पर मेजर ने बताया कि इस बार उनके यहां कोठी वाले सरदारों के बीच बड़ा कड़ा मुकाबला है। दोनों भाई एक दूसरे को चुनाव में पटकनी देने को कोई भी कसर नहीं छोड़ रहे हैं। मेजर और उसकी पत्नी की वोट गांव की वोटर लिस्ट में शामिल होने के कारण ही उसे कोठी वाले बड़े सरदार ने उसे बुलावा भेजा था और अपने पक्ष में वोट डालने को कहते हुए पांच हजार रुपए प्रति वोट के हिसाब से दस हजार रुपए दे दिए थे। अपनी इस उपलब्धि के बारे में बताकर मेजर सीधे चेंजिंग रूम में गया और वर्दी पहनकर ड्यूटी पर हाजिर हो गया। अब बूटा सिंह के ड्यूटी से छुट्टी करने का समय था। दूसरी जगह पर आज उसका साप्ताहिक अवकाश था सो कपड़े बदल कर उसने साइकिल उठाई और घर की तरफ चल दिया। बूटा सिंह खुद को कोसने लगा कि क्यों वह गांव छोड़कर इस पत्थरों के शहर में आ गया, जहां चुनाव में मतदान का भी कोई फायदा नसीब नहीं होता। वह सोचने लगा कि काश, वह भी गांव में ही मतदाता होता।
रास्ते भर उसके दिमाग में बार-बार मेजर को मिले पैसों का ख्याल आए जा रहा था। वह सोच रहा था कि जिसके पास पहले से ही भरपेट मौजूद है, देने वाला भी उसे ही दे रहा है। रात को बिस्तर पर पड़े भी वह इन्हीं ख्यालों में खोया रहा और न जाने कब नींद के आगोश में चला गया।
सुबह बच्चों के अपने-अपने कालेज चले जाने के बाद वह आंगन में बैठ गया और किचन का काम निपटाने के बाद वीरांवाली भी उसके पास आ बैठी। वह उसकी स्थिति को भांप गई थी शायद। उसने पूछ ही लिया कि इतना परेशान क्यों हो। बूटा ने बैंक से आए फोन की बात बताई तो एकबारगी वीरांवाली भी सन्न रह गई। फिर हौसला करके उसने बूटा सिंह को भी हौसला रखने को कहा। इसी पल उसने बूटा सिंह से यह भी कह डाला कि अगर ज्यादा मुसीबत है तो गांव मे पड़ा एक कमरे का टूटा-फूटा मकान ही बेच क्यों नहीं देते। कम से कम इतने पैसे तो मिल ही जाएंगे कि पांच-छह महीने की किश्तें आराम से कट जाएं। बूटा सिंह ने नजर भरकर वीरांवाली को देखा और चुपचार टिफिन उठाकर वहां से आफिस की तरफ चल दिया।
करीबन सवा दस बजे उसका फोन घनघनाया। ऑन करते ही दूसरी तरफ से कोई बोला सत्त श्री अकाल बाई जी, की हाल-चाल ऐ। बूटा सिंह ने अनजान आवाज होने के कारण पूछ लिया कि कौन बोल रहा है। दूसरी तरफ से आवाज आई के आपके गांव से फुम्मन सिंह बोल रहा हूं। अधमने से हामी भरते हुए बूटा सिंह ने उसे सत श्री अकाल का जवाब दे दिया और इधर-उधर की बातें होने लगी। इसी दौरान फुम्मन ने उससे उसके कार्यालय का पता पूछा और कहा कि हमारा एक काम है। कोई उससे आकर मिलेगा, यदि कोई दिक्कत हो तो फोन कर लेना। इतना कहकर फोन बंद कर दिया गया। बूटा सिंह को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन अपनी परेशानियों के चलते उसने इस तरफ से ध्यान हटा लिया।
सवा एक बजे का समय होगा, जब वह लंच करने के लिए स्टोर रूम में चला गया। नरेश उस वक्त गेट पर उसकी ड्यूटी दे रहा था। अभी उसने आधा खाना ही खाया था कि नरेश ने उसे आवाज दे दी कि कोई मिलने आया है। तिलमिलाते हुए बूटा सिंह वहां आया और नरेश के इशारा करने पर पार्किंग की तरफ चला गया। सामने सफेद कुर्ता-पायजामा पहने एक नेतानुमा युवक दिखाई पड़ा। बूटा सिंह के पुरारते ही वो युवक बड़े अदब से नजदीक आया और उसके पांव छुए। कुछ बातें हुईं और युवक ने बूटा सिंह की किसी के साथ फोन पर बात भी करवाई और बाद में वहां से चला गया।
मतदान का दिन था और अलसुबह ही बूटा सिंह के घर के बाहर एक कार आकर रुकी। बूटा सिंह के कहने पर पूरा परिवार रात में ही कहीं जाने की तैयारी कर चुका था और गाड़ी पहुंचते ही वह उसमें सवार हो गए। गाड़ी उनके गांव की तरफ दौड़ने लगी। सुबह की लालिमा लिए जैसे-जैसे सुर्ख सूर्य आसमां में उठता जा रहा था, वैसे-वैसे ही बूटा सिंह के चेहरे पर खुशी झलकने लगी थी। दरअसल, गांव की मतदाता सूची में बूटा सिंह के परिवार के चारो सदस्य मतदाता के तौर पर दर्ज थे और वह लोग अपने ‘मत का दान’ करने के लिए जा रहे थे। माहौल को देखते हुए अब तो उनके वोट की कीमत भी कई गुणा बढ़ चुकी थी

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