अग्नि, यम, वायु, जल एवं अंतरिक्ष के तेजोमय गुण-प्रवृत्ति-प्रभाव से युक्त आबद्ध गति से चलायमान चक्र निर्णय-निधि एवं निवास से उत्पन्न विपन्नता-विभेद नष्ट करने वाला हो.
इस चक्रमय चूड़ा के निर्माण के पश्चात स्वयं महर्षि कपिल ने इसे प्रेरणा प्राण दिया था. तथा दत्तात्रेय ने इसे सर्व प्रथम देवराज इन्द्र को प्रदान किया था. अथर्ववेद के भाग प्रथम के काण्ड 7 के सूक्त 39 के मन्त्र 1, 2 एवं तीन में अनुष्टुप छंद में महर्षि अथर्वण ने स्वयं इसका वर्णन किया है–
“इदं खनामि भेषजं मां पश्यमभिरोरुदम.
परायतो निवर्तनमायतः प्रतिनंदनम.—-1
येनानिचक्र आसुरीन्द्रं देवेभ्यस्परि.
तेना नि कुर्वे त्वामहं यथा तेSसानि सुप्रिया.—–2
प्रतीची सोममसि प्रतीच्युत सूर्यम.
प्रतीची विश्वान देवान तां त्वाच्छावदामसि.——3
—द्वितीय मन्त्र में देखें जिस चक्र ने देवताओं के राजा इंद्र को उनकी पत्नी से प्रत्येक भ्रम-विवाद-भ्रम मिटाकर पुनः दैत्यों पर आधिपत्य स्थापित करने की शक्ति-प्रेरणा एवं बुद्धि दी थी, उसे कहा गया है कि हे चक्र !!!! मेरे भी पति-पत्नी का जीवन सुखी, शान्ति से भरपूर एवं धन-संपदा से पूर्ण बनाओ.
तीसरे मन्त्र में इसके निर्माण में अग्नि, वायु, यम, जल एवं आकाश के तेज सम्मिलित होने का आवाहन है.
प्रथम मन्त्र में इनके परस्पर निर्माण का अनुपात एवं विधान निर्देशित है.
इसका सबसे पहले सशक्त प्रयोग हुताशनपुरी (-संभवतः वर्तमान होशियारपुर एवं लुधियाना के मध्य का कोई भाग) के रहने वाले पंडित देवव्रत शर्मा द्वारा विक्रमसंवत 32 में किया गया था.
निर्माण विधान-
नीला थोथा एवं शुद्ध शंखीया के घोल में गन्ने का कच्चा तेजाब बराबर मात्रा में डाल लें. उसे एक मिटटी के चपटे छिछले बर्तन में रखें. एक बड़ा आतशी शीशा (Convex Lense) लेकर उसका फोकस उस बर्तन के मध्य स्थिर करें. एक मिनट में उस फोकस वाले स्थान पर बुद बुदाहट शुरू हो जायेगी. जहाँ बुद बुदाहट होवे वहाँ पर द्रव पदार्थ में ताम्बा, चाँदी, ज़स्ता, मूँगा, लहसुनिया तथा पुखराज रख दें. चाँदी के स्थान पर सोना, पुखराज के स्थान पर हीरा या नीलम रखा जा सकता है. यह अपनी आर्थिक क्षमता के ऊपर निर्भर है.
आतशी शीशा वाला कार्यक्रम ढाई मुहूर्त तक करें. बरतना का द्रव पदार्थ आधा जल कर समाप्त हो जायेगा. उसमें से ताम्बा आदि को निकाल लें. यदि आप के पास धौंकनी यंत्र हो तो स्वयं अन्यथा किसी स्वर्णकार के यहाँ से सबको गलाकर पतला छड जैसा तैयार कर लें. और अपनी या जिसे पहनना हो उसके माप का गोला कड़ा बनवा लें. जब कड़ा बन जाय तो उसे पुनः आग पर गर्म क्र लाल करलें. तथा उस लाल छड़ को गर्म अवस्था में ही उस नीला थोथा तथा शंखिया के घोल में सावधानी के साथ डालकर ठण्डा कर लें.
जब ठण्डा हो जाय तो उसे साफ़ पानी से अच्छी तरह धोकर केले के पत्ते पर रखें. उसके बाद शिव सूक्त, उषः सूक्त तथा अग्नि सूक्त के मन्त्रों से विधिवत दूध से स्नान करावें, तथा धूप-दीप आदि दिखाकर रविवार या मंगलवार को मध्याह्न अर्थात अभिजित मुहूर्त्त में धारण करें. यह कार्य रिक्ता तिथि में न करें. तथा कृष्ण पक्ष में न करें.
यह विधवा, सन्यासी या पुनर्विवाह की हुई औरत नहीं धारण कर सकती है.
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