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नाड़ी क्या है?

वेद विज्ञान
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शरीर में नाड़ियाँ

नाडी क्या है?
शरीर के अन्दर विविध पदार्थो एवं संवेदनाओं-सूचनाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान को लाने एवं ले जाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी कहते हैं. रक्त को ले जाने तथा लाने वाली वाहिकाओं को नस या Blood Duct तथा संवेदना-सूचना आदि को ले जाने एवं लाने वाली वाहिकाओं को नाड़ी या Nerves कहते हैं. इनकी संख्या समूचे शरीर में साढ़े तीन लाख -350000 होती है. किन्तु उनमें प्रधानता मात्र 14 ही की होती है.–
सार्द्धलक्षत्रयं नाड्यः सन्ति देहान्तरे नृणाम.
प्रधानभूता नाड्यस्तु तासु मुख्याश्चतुर्दश.-शिवसंहिता 2/13
जैसे किसी सड़े हुए पीपल के पत्ते पर साफ़ साफ़ नसें दिखाई देती हैं ठीक वैसे ही शरीर में ये नाड़ियाँ फैली हुई हैं. ये प्रधान चौदह नाड़ियाँ निम्न हैं-
“सुषुम्नेडा पिंगला च गांधारी हस्तिजिह्विका.
कुहूः सरस्वती पूषा शंखिनी च पयस्विनी.
वारुण्यलम्बुषा चैव विश्वोदरी यशस्विनी.
एतासु त्रिस्रो मुख्याः स्युः पिंगलेडासुषुम्निकाः. –शिवसंहिता 2/14-15
इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, गांधारी, हस्तजिह्वा, कुहू, सरस्वती, पूषा, शंखिनी, पयस्विनी, वारुणी, अलम्बुषा, विश्वोदरी और यशस्विनी, इन चौदह नाड़ियों में इंगला, पिगला और सुषुम्ना तीन प्रधान हैं. इनमें भी सुषुम्ना सबसे मुख्य है. इन चौदह नाड़ियों में सात ऊपर की तरफ जाने वाली तथा सात नीचे की तरफ जाने वाली होती हैं. जैसे कुहू नाड़ी सुषुम्ना के बायीं तरफ से होते हुए मेढ्रदेश तक चली जाती है जब कि यशस्विनी नाड़ी कुण्डलिनी से दाहिने पैर के अंगूठे की नोक तक जाती है. इस प्रकार शरीर में स्थित चौदहों भुवन तक ये चौदह नाड़ियाँ विस्तारित हैं. इनका क्रम निम्न प्रकार है- ॐ भू भुव, स्व, मह, तप एवं सत्य लोक. ये ऊपर के लोक हैं. इसके नीचे अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल एवं पाताल हैं. ॐ अर्थात कुण्डलिनी तक तो सब को जाना या वही आकर समाप्त हो जाना है. जैसे सुषुम्ना एक स्वतंत्र नाड़ी होते हुए भी सबकी संवेदना-सूचना-आज्ञा स्वयं एकत्र करती है, वैसे भी ॐ पृथक लोक होते हुए भी यह सबमें समाहित है या सब इसी में समाहित हैं. यह नाड़ी अपनी सूचना तो रखती ही है इसके अलावा सब नाड़ियों की सूचना भी अपने पास एकत्र रखती है. जिस तरह से परमाणु का नाभिक (Nucleus) अपने अन्दर Neutron एवं Proton को तथा अपनी बाहरी कक्ष्या में Electron को रखते हुए भी उस Electron की संख्या में वृद्धि करते हुए नित नये तत्वों के निर्माण में अग्रसर है. वृद्धि ही करता रहता है. (देखें एन मिलिंग का Elementary Revolution). ॐ का अ अर्थात अस्तित्व प्राप्त करना या स्थूल रूप धारण करना, ई अर्थात शक्ति धारण करना या पालन पोषण या संवर्द्धन तथा म या लोप या समा जाना या मोटे शब्दों में संहार. (-ॐ का व्याकरण सम्मत तथा शास्त्र सम्मत विश्लेषण मैं अपने पूर्ववर्ती लेखों में दे चुका हूँ.)
शरीर के विविध अंगों से विविध संवेदना या सूचना या आज्ञा छोटी छोटी नाड़ियाँ एकत्र करके अपने से श्रेष्ठ उपर्युक्त चौदह नाड़ियों तक पहुंचाती हैं. ये चौदह नाड़ियाँ उन अपनी सहायक छोटी नाड़ियों से इन सूचनाओं को एकत्र कर अपने से श्रेष्ठ प्रधान तीन नाड़ियों-इंगला आदि को प्रदान करती हैं. इन सबको सुषुम्ना एकत्र कर कुण्डलिनी पर आवरण स्वरुप कवच के रूप में उसे ढकी रहती है. ध्यान रहे, उपर्युक्त बतायी गयीं साढ़े तीन लाख नाड़ियाँ इसी कुण्डलिनी से निकलती हैं. जैसा कि मैं पहले ही बता चुका हूँ, कुण्डलिनी का स्थान मलमार्ग एवं मूत्र मार्ग जहाँ से पृथक होते हैं उसी संधि के पास कुण्डलिनी रहती है. जो समस्त नाड़ियो को जन्म देती है तथा सबसे सूचना-संवेदना एकत्र कर अपने ऊपर पर्दा या आवरण स्वरुप धारण किये रहती है.
एक बात सबको लगभग ज्ञात होगी, यही वह स्थान है जहाँ से वीर्य या रज (Cemen) एक सम्पूर्ण शरीर को जन्म देने में सक्षम होता है. यह एक अतीव ज़टिल तथा रहस्यमय तंत्रिकात्मक संयंत्र (Highest Technical Mechinery) है. जिसे हम वीर्य या रज कहते हैं, वह मूल रूप में किरण रूप में कुण्डलिनी में रहता है. किन्तु उस अवस्था में यह पदार्थ तीन रूप में होता है क्योकि जो नाड़ी अर्थात इंगला का पदार्थ इंगला के स्वभाव वाला, पिंगला का पिंगला के स्वभाव वाला तथा सुषुम्ना का सुषुम्ना के प्रभाव वाला होता है. जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूँ, इंगला पर ऋण आवेश (Negative Charge), पिंगला पर धनावेश (Positive Charge),तथा सुषुम्ना पर कोई आवेश नहीं (Neutral) होता है. जब नाड़ियो में विक्षोभ उत्पन्न होता है-जैसे कोई विकार स्वरुप मनोभाव नाड़ियों द्वारा इस कुण्डलिनी तक पहुँचता है तो ये किरण रूप वाले तीनो पदार्थ परस्पर मिलकर द्रव रूप में परिवर्तित होकर वीर्य या रज का रूप धारण कर लेते है. और जब इनका रूप द्रव में परिवर्तित हो जाता है तब यह दूषित हो जाता है. और कुण्डलिनी का अधस्रहण भाग इसे अपने पास से निकाल बाहर फेंक देता है. क्योकि कोई भी दूषित या अपवित्र वस्तु या पदार्थ इसके निकट नहीं रह सकता.                  ​
नाड़ियों का सम्बन्ध इन्द्रियों से होता है. इन्द्रियाँ मन से संचालित होती हैं. मन की आज्ञा के अनुसार इन्द्रियाँ कार्य करती हैं. जैसा कार्य होता है उसकी सूचना नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं. और उसके बाद कुण्डलिनी उसका उचित अनुचित निर्णय लेकर उन संग्रहीत सूचनाओं के ऊपर निर्णय लेती है. अतः जब इन्द्रियों के विक्षोभ को नाड़ियाँ कुण्डलिनी तक पहुंचाती हैं तो नके द्वारा एकत्र पूर्ववर्ती सूचनाओं में हलचल या विक्षोभ उत्पन्न होता है. और जब यह विक्षोभ दूषित हुआ तब यह तीनो पदार्थो से बना तत्व या पदार्थ अधस्रहण द्वारा बाहर फेंक दिया जाता है. जैसे कान के द्वारा सुना गया कोई अपशब्द पुंजीभूत होकर ज्ञानेन्द्रिय की सहायक वाहिका द्वारा मन को पहुंचाया जाता है. मन को इससे अपनी प्रतिष्ठा पर ठेस लगता है. मन तत्काल इसके विपरीत प्रतिक्रया के लिये सम्बंधित नाड़ियों से सूचना कुण्डलिनी तक पहुंचाता है. कुण्डलिनी के पास घिरा आवरण तदनुरूप द्रवित अन्य पदार्थ का रूप धारण कर सम्बंधित या उस कार्य के लिये नियुक्त नाडी के माध्यम से मन को वापस किया जाता है और मन के द्वारा तत्काल समबन्धित कर्मेन्द्रिय जैसे झगडा करने के लिए हाथ या मुंह आदि को आदेश दिया जाता है.
इस प्रकार कुण्डलिनी के पास एकत्र पदार्थो का उपयोग मनुष्य द्वारा किया जाता है.
ये ही सारे पदार्थ यदि अपना आवरण कुण्डलिनी पर से हटा दें तो कुण्डलिनी पर पडा दबाव स्वरुप बोझ समाप्त हो जाता है तथा कुण्डलिन हलकी होकर ऊपर उठाते हुए मूलाधार से स्वाधिष्ठान, नाभि, अनाहत, विशुद्धि एवं आज्ञाचक्र होते हुए ब्रह्मरंध्र में जाकर स्थिर हो जाता है. और जब तक इस कुण्डलिनी पर विविध नाड़ियों द्वारा एकत्रित संवेदनाओं-सूचनाओं का बोझ लदा रहेगा, कुण्डलिनी वही दबी रहेगी. और मनुष्य विविध दुश्चक्र में फँसा रह जाएगा.
संलग्न चित्र में षडचक्रों एवं नाड़ियों के स्थान को देखा जा सकता है.

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