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धरा को प्रमाण यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना.

वेद विज्ञान
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  • धरा को प्रमाण यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना.
  • जगन्नियंता पार ब्रह्म परमेश्वर के नियमन चक्र को प्रतिपादित करने वाली कालपुरुष क़ी सहभागिनी स्वरूपा प्रकृति एक निर्दिष्ट व्यवस्था के आधीन सुनियोजित प्रकार से यद्यपि प्रदत्त उतार दायित्व के व्युत्क्रमानुपाती क्रम में निरंतर गतिशीला है, किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि उसके संसाधन या अँग रूप जड़, जंगम एवं स्थावर इस अनुबंध या प्रतिबन्ध से उन्मुक्त है. प्रकृति ने अपने उत्तर दायित्व के संवहन में सब को समान रूप से प्रतिभागी बनाते हुए स्वभाव, गुण एवं सामर्थ्य के अनुरूप सबको सक्रिय रूप से नियुक्ति के उपरांत उनसे अपेक्षा भी बना रखी है. यह अलग बात है कि अपनी बौद्धिक, आध्यात्मिक, नैतिक, शारीरिक, सामाजिक एवं पारंपरिक क्रिया कलाप क़ी विविधता के कारण उसमें आने वाले विचलन या दूसरे शब्दों में शरीर संचालन क़ी अधिकारिणी इन्द्रियों में आवश्यक एवं अपेक्षित अनुशासन तथा संयम के अभाव में प्रकृति क़ी अपेक्षा या लक्ष्य क़ी उपेक्षा के कारण भ्रन्शात्मक परिणाम दृष्टि गोचर होने लगते है. हम प्रकृति के अंगभूत अन्य अवयवो में से मानव रूपी अँग के ऊपर विचार करते है.
  • सर्व प्रथम हम अपनी हठी प्रवृति को इंगित करते है. हमें निरंतर ठोस प्रमाण प्रत्यक्ष रूप से प्रकृति द्वारा दिये जाते है. किन्तु हम क्योकि हठी प्रवृत्ति के पूर्णतया वशीभूत है, इसलिये उधर ध्यान देना नहीं चाहते. जो हमें अपने आप को एक बौद्धिक प्राणी कहने पर उपहास के सिवाय और कुछ नहीं है.
  • पेड़ भी जब अपने पुराने पत्ते छोड़ता है, तों उसे अपनी जड़ के पास ही गिराता है. यह तों हवा या अन्य किसी बाहरी विक्षोभ का कभी कभी आघात हो जाता है कि वह टूटा हुआ पत्ता पेड़ क़ी जड़ से दूर चला जाता है. अन्यथा पेड़ अपने पुराने या पक चुके पत्ते को सदा अपनी जड़ में ही गिराता है. उस बूढ़े, पुराने, जीर्ण शीर्ण हो चुके सर्वथा अनुपयोगी पत्ते को भी अपने से दूर नहीं जाने देता है. किन्तु क्या आप ने सोचा है कि हमारी क्या स्थिति है? हमारे टूट कर गिर जाने के बाद क्या दशा होती है? हम जिस दिन टूट कर गिर जाते है, अविलम्ब घर-परिवार तों दूर गाँव-नगर से भी दूर फेंक दिये जाते है. जितना जल्दी हो सके हमें अपनो एवं पराये सब से बहुत दूर कर दिया जाता है.
  • पेड़ का पत्ता अपने प्रेम एवं सम्बन्ध को जवान एवं समर्थ रहने पर तों पेड़ को दर्शाता ही है. टूट कर जड़ में गिरने के बाद अपने शरीर को सड़ा गला कर पुनः उस वृक्ष का भरण पोषण करता रहता है. यदि सड़ गया तों खाद बन कर और यदि सड़ा नहीं है, तों उसकी जड़ो को आवरण बनकर अन्य बाहरी आघात से बचाकर. किन्तु हमारा यह शरीर क्या करता है? यह इतना बदबू देता है कि उसके अपने कहलाने वाले ही श्वासावरोध के शिकार बनना शुरू हो जाते है.
  • हम सब लोग एक बात पता नहीं क्यों भूल जाते है कि चाहे वह सदा सत्यवादी रहा हो या मिथ्याभाषी सभी का देहावसान हुआ है. चाहे कोई कितना भी धन्ना सेठ रहा हो या भीख माँगने वाला,– सबको मरना पडा है. फिर इस शरीर को सजा संवार कर इसके मूल एवं नैसर्गिक रूप एवं प्रकृति से पृथक आकार एवं रूप देने में क्यों अपनी बौद्धिक एवं नैतिक क्षमता का ह्रास करते है? क्या हम कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकते जो पेड़ के पत्तो क़ी तरह हमारे मरने के बाद भी हमारे अपने- मानव समुदाय, के लिये वृद्धि एवं विकास के काम आवे? आखीर हमारे मरने के बाद हमारे अपने ही हमसे क्यों इतनी घृणा करने लगते है? हमने आखिर क्या ऐसा किया जो ये सब तत्काल ही हमारे परम शत्रु बन जाते है?
  • इतना तेल, इतर, उबटन, सुगंध आदि विविध द्रव्यों से इसकी सेवा शुश्रूषा करते है. नाना व्यंजन का भोजन करते है? विविध पुष्टि कारक तत्वों का सेवन करते है. फिर तत्काल मरते ही आखिर ऐसा क्या हो जाता है कि इस शरीर से सब को घृणा हो जाती है. वृक्ष तों गिर जाने पर भी यदि हम उसे न हटायें तों पुनः अपने जड़ को परिपोषित कर उसे नया रूप दे देता है. जितना ज्यादा वह अपने शरीर को कष्ट-सडन देता है, उसकी जड़ उतनी ही ज्यादा पोषण प्राप्त करती है. किन्तु हम बुद्धिजीवी होकर भी अपने शरीर को कैसे ऐसा बना देते है कि हम ही उससे भयंकर घृणा करने लगते है. और जल्दी उसे अपनी आँखों से दूर कर देना चाहते है?
  • देह धारियो में भी हमारे इस चतुर्दिक रक्षित एवं परिपोषित मानव शरीर क़ी बहुत निंदा है. सर्वथा घ्रिणाकारक है. पशु मर जाते है. तों उनके शरीर का प्रत्येक भाग जीव धारियों के काम आ जाता है. हड्डी से लेकर चमड़ी तक- सब कुछ काम आता है. किन्तु हम मनुष्यों का शरीर ———. ?
  • फिर इसके आवश्यक पोषण के अलावा सौंदर्य सौष्ठव से इसके मूल रूप में परिवर्तन क्यों? क्या सौंदर्य सौष्ठव के ऐसे प्रारूप या विकल्प को ढूँढने का प्रयत्न हमें करना चाहिए जो प्रकृति के अन्य अवयवो क़ी भांति यह दूसरे को न सही, कम से कम अपनी बिरादरी- मानव, के तों काम आ सके.
  • थोड़ा बहुत तों इस तरफ चलने क़ी प्रवृत्ति लोगो में आ रही है. कुछ लक्षण दिखाई देने लगे है. जैसे जीते जी अपनी आँखों का मरणोपरांत दान देने का संकल्प करना. किडनी दान करना आदि.
  • किन्तु इसमें भी ढेर सारी विडम्बनायें सामने आ रही है. गुर्दा दान करना तों ठीक है. किन्तु गुर्दा दान करने के नाम पर जो भयंकर षडयंत्र देखने को मिला है, वह अत्यंत घृणित एवं भयावह है. ऐसे अनेक लोग दिखाई दिये है जो किसी के दबाव में आकर ऐसा बयान देते है. जैसे वे अपनी आर्थिक मज़बूरी के चलते कुछ पैसे के लिये अपना गुर्दा बेच रहे है. तथा उनसे दबाव देकर यह बयान दिलवाया जा रहा है कि वे स्वेच्छा से अपना गुर्दा दान कर रहे है. पश्चिम बंगाल का मिदना दिनाज पुर इसका ज्वलंत उदाहरण है.
  • इसके अलावा कुछ लोग मरणोपरांत अपनी आँखें दान देने का संकल्प दे रहे है. किन्तु देखने में यह आया है कि इसमें से अस्सी प्रतिशत लोग घृणित सस्ती लोक प्रियता हासिल कर लोगो क़ी सहानुभूति बटोरने में लगे है. तथा समाज से इसका अदृष्य एवं अप्रत्यक्ष रूप से मुआवजा ले रहे है. जैसे पहले ढिढोरा पीटते है कि वह मरणोपरांत अपनी आँख दान दे देगें. फिर समाज के ढेर सारे लोगो को अपने विश्वास में लेते है. उनकी सहानुभूति बटोरते है. और अनेक अनैतिक तथा असंवैधानिक कार्य करते है. किन्तु कोई उन पर उंगली नहीं उठा सकता है. क्योकि समाज का एक ढेर सारा तबका उसके साथ आँख बन्द कर के हो जाता है. तथा उस व्यक्ति के खिलाफ कुछ भी सुनना उसे गंवारा नहीं होता है.
  • सृष्टि संचालक के द्वारा दी गयी अनमोल धरोहर स्वरुप सूक्ष्म बुद्धि क़ी गवेषणात्मक क्षमता का दुरुपयोग ही आज प्राकृतिक विक्षोभ का कारण बन रहा है. अन्यथा उत्तर प्रदेश के निठारी जैसा जघन्य कुकृत्य- अबोध बच्चो क़ी ह्त्या कर उनका माँस खाना, कभी भी संभव नहीं था. आध्यात्मिक स्वरुप से विमुख निर्बोध जंगली हिंसक जानवरों में एवं तथा कथित बुद्धिजीवी मानव में कोई अंतर नहीं है.
  • पेड़ भी अपने उसी पत्ते को गिराता है जो अब गिरने के बाद ही उसके लिये उपयोगी हो सकता है. और पत्ता भी पेड़ से तभी गिरता है जब वह पेड़ से लगे रहकर उस पेड़ के लिये अनुपयोगी दिखाई देने लगता है.
  • और यही कारण है कि दोनों में अर्थात पेड़ एवं पत्ते में, जन्म तों दूर मरने के बाद भी प्यार, स्नेह, लगाव एवं एक दूसरे के प्रति जन्म जन्मान्तर का सम्बन्ध बना रहता है. न तों पत्ता पेड़ से टूटने के बाद दूर भागता.है, न तों पेड़ उसे दूर भगाता है. और न ही पत्ता उससे दूर जाने क़ी कोशिस करता है. बस पेड़ से गिरा और पेड़ में समाया.
  • हे जीवन वर जीवट तरुवर
  • भर परागकण निज पुष्पों में दिग दिगंत महकाए.
  • दे सुगंध कर पावन जीवन गगन स्नेह छलकाए.
  • पत्र-पुष्प एक दूजे क़ी शोभा यह पाठ पढाये.
  • सदा रहे खुश इनके संग तुम सब कुछ न्यौछावर कर.
  • हे जीवन वर जीवट तरुवर——-
  • पत्ता हो या फूल गिरे तेरे चरणों में आके.
  • गलती सही माफ़ करना कहते चरणों में जाके.
  • अलग नहीं हो सदा बिछड़ इनसे सम्बन्ध मधुर कर.
  • हे जीवन वर जीवट तरुवर——–
  • भीषण भानु विकट वरसाता झंझावात बयारी.
  • साथ साथ मिल सहे अहर्निश धन्य हो तेरी यारी.
  • करते प्रेम प्रगाढ़ सदा हो इक दूजे से बिछड़ कर.
  • हे जीवन वर जीवट तरुवर……
  • पत्ता ढके तुम्हारे तन को कर के छाँव घनेरे.
  • मीठा पुहुप बदन महकाए होते सांझ सबेरे.
  • गाते गीत खुशी के पत्र-पुष्प-फल सब हिल मिल कर.
  • हे जीवन वर जीवट तरुवर………..

क्योकि इनको पता है कि——————–

  • धरा को प्रमाण यही तुलसी जो फरा सो झरा जो बरा सो बुताना.
  • पण्डित आर. के. राय
  • प्रयाग

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