श्लोकोयं गुणगूढ़ द्वयार्थकं वा तज्जनोतीति देवि रहस्यम्।(पण्डितः)
नारायणी महादेवी ने देव समूह को सम्बोधित किया–
“एक मैं हूँ. मैं एक ही हूँ. केवल मैं ही एक हूँ. मैं केवल एक ही हूँ.
एक मैं हूँ—हे विभूतियों आप ही लोग नहीं बल्कि एक मैं भी हूँ. यदि आप सोचते है कि आप के सिवाय कोई नहीं तो यह आप की भूल है जो अज्ञान के अंधकार में तिरोहित करने वाला अवसादक ही है.
मैं एक ही हूँ- हे सत्यवादिन! मैं एक ही हूँ. आप जितनी भी शक्तियो को देखते या पूजते या जानते हो, वह सब मेरा ही रूप है. इसलिये मुझसे पृथक किसी भी शक्ति का स्वतंत्र अस्तित्व न जाने-माने।
केवल मैं ही एक हूँ–-हे ऊर्ध्वनिष्ठ तपश्चर्या रत देवताओं! मैं ही एक अकेली ऐसी हूँ जो नितांत एक हूँ. शेष सब दो या इससे अधिक रूप, प्रकृति एवं प्रभाव वाले है. (आत्मा परमात्मा विभेदन जीव संज्ञा तदंशः). एक परमात्मा तथा दूसरा उसका अंश परमात्मा।
मैं केवल एक ही हूँ- हे सत्यार्थी देवताओं! मैं जो तुम्हें दिखाई दे रही हूँ वह मैं अकेली हूँ. क्योकि इसका कभी नाश नहीं होता इसलिये इसका जन्म भी नहीं होता। और जब जन्म नहीं होता तो रूप, स्वभाव, अवस्था आदि परिवर्तन का प्रश्न ही नहीं है.
द्वितीयो नास्ति– मैं “दूसरा” नहीं हूँ. क्योकि दूसरा कुछ होता ही नहीं है. कारण यह है कि दूसरा तभी होगा जब पहले का नाश हो जाय. पहला अनाम, अयोनिज, अजन्म, अनादि एवं अनंत है. तो निश्चित रूप से जो दूसरा दिखाई दे रहा है वह मिथ्या है, भ्रम है या “मृत्यु” है.
==============मुख्य अंश===
“मामोपाहम् विभंज्यते”
मैं प्रथम है जो अस्तित्व में आते ही “अहम्” अर्थात अहँकार पोषित हो जाता है और इसलिये इसका नाश हो जाता है.
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