अंगूर खट्टे है. लोमड़ी क़ी कहानी से सभी परिचित है जो बार बार उछलने के बावजूद भी जब अंगूर के गुच्छे तक नहीं पहुँच पायी तों बोली कि अंगूर खट्टे है. ऐसे ही इस जागरण मंच क़ी धर्मशाला में कुछ एक ऐसे यात्री आकर ठहरे है जो दांत होते हुए भी वेदान्ती (या बे दांती) है. जौ तीसी का ज्ञान नहीं है, फिर भी ज्योतिषी है. जो माता-पिता क़ी संतान तों है, फिर भी उन्हें प्रमाण चाहिए कि कौन आदमी उसका पिता है. यदि किसी ने या खुद उसकी माँ ने ही बताया कि अमुक आदमी तेरा बाप है तों वह माँ से ही तार्किक प्रमाण मांगता है कि सिद्ध करो कि वही उसका बाप है. कोई बात नहीं यह तों धर्म शाला है. यहाँ तों अनेक रूप, रंग, सोच-विचार, शिक्षा-दीक्षा वाले यात्री ठहरते है. जायज़, नाजायज़ एवं वर्ण शंकर ह़र तरह के श्रद्धालु यहाँ ठहर रहे है. इन्ही यात्रियों में कुछ तीर्थ स्नान करने आते है. कुछ सत्संग करने आते है. कुछ वैराग्य लेने आते है. लेकिन कुछ धर्मशाला ही हड़पने आते है. उन्हें यह कत्तई यह गवारा नहीं है कि कोई दूसरा उनके सामने टिके. बस वह जो कह दिया, वह ब्रह्मरेख है. तथा सबको उसका समर्थन करना ही है. चाहे वह व्यर्थ प्रलाप, वास्तविकता से दूर निराधार एवं सबको ठेस ही पहुंचाने वाली क्यों न हो. लेकिन शायद उसे यह पता नहीं है कि वह मिट्टी के उन बर्तनों क़ी तरह है जिसमें पानी पीना प्यासे क़ी मज़बूरी है. किन्तु पीने वाला पानी पीकर उसे फेंक कर तोड़ ही देता है. अब बर्तन है तों पानी तों उससे पीना ही पडेगा. मेरी समझ से बर्तन को इस बात का ज्ञान पहले से ही होता है. इसीलिए वह आवाज़ के साथ टूटता है. क्योकि वह फिर बर्तन का रूप पाने वाला है नहीं. और तों और ये धर्मशाला के यात्री जबरन अन्य यात्रियों से कहते है कि मेरी बात सुनो, कुछ कहो मत. क्या आप ने यह देखा नहीं है कि अपनी रचना प्रस्तुत करने के बाद अंत में लिखते है कि कृपया इस पर आप अपनी प्रतिक्रिया दें. कुछ लिखते है कि मैंने आप क़ी अमुक रचना पढी है. उस पर आप मेरी प्रतिक्रिया देखें. इस प्रकार उनको यह पता है कि ऐसे तों मेरी इस बकवास क़ी तरफ कोई ध्यान देगा नहीं, अब जबरदस्ती सबको कह कर उसे पढ़वावो. यदि आप ने गलती से उसकी मूर्खता पर एक भी शब्द लिख दिया तों बस तूफ़ान आ जाएगा. यही उसे बर्दास्त नहीं है. अभी आप बताएं, जो पढेगा वह यदि उचित समझेगा तों प्रतिक्रिया देगा. जबरदस्ती प्रतिक्रिया लेने का क्या तात्पर्य है. यदि उसका विचार जानना ही है तों उसके लेख को पढो, उसके विचार खुद ब खुद पता चल जायेगें. एक बात क्या आप ने देखा है कि लोग अपना उप नाम छिपा कर रचनाएँ पढ़वा रहे है. तथा ऊपर से अंध विश्वास, ढोंग, एवं जाति पात के भेद को मिटाने को कह रहे है. उसके लिये ये पंक्तियाँ कोई मायने नहीं रखती है- “जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है. वह नर नहीं है पशु निरा है और मृतक समान है.” यहाँ तों उसे अपनी जाति, वर्ग यहाँ तक कि माँ बाप पर विश्वास नहीं है. वह क्या खाक देश एवं गौरव क़ी बात सोचेगा? क्या जाति है? मै पंडिताई का व्यवसाय जानता हूँ तों पंडिताई करता हूँ. कोई मिठाई बनाने का काम करता है तों वह हलवाई कहलाता है. जो सूअर पालने का काम करता है उसे दुसाध कहा जाता है. जो जैसा व्यवसाय करता है उसे उस तरह से पुकारा जाता है. जाति का आविर्भाव कहाँ से हुआ? जाति का उद्भव प्रारम्भिक रूप में कार्य क़ी अवस्था के अनुसार हुआ. हमें अपनी जाति पर अभिमान होना चाहिए. हमें अपने काम पर भरोसा, लगन एवं प्रेम होना चाहिए. हमें अपने कार्य को सुचारू रूप से पूर्ण करना चाहिए. किस जाति के उन्मूलन क़ी बातें क़ी जा रही है? वही औरत यदि किसी के घर में “मेस्तरनी” का काम करती है तों मेस्तरनी कहलाती है. और जब वह किसी सरकारी प्रतिष्ठान्न में नौकरी करते हुए वही काम करती है तों वह मैड सर्वेंट या आया कहलाती है. मंत्री के याहां उसके ह़र जायज़ नाजायज़ काम को करने वाला पीए साहब या पर्सनल सेक्रेटरी कहलाता है. किन्तु यदि कोई आदमी किसी के घर नौकरी करता है तों उसे हलवाहा या चरवाहा कहा जाता है. जाति प्रथा के उन्मूलन क़ी बात वही करेगा जिसे अपने काम पर भरोसा नहीं होगा. यहि कारण है कि चोर को चोर कह दो तों वह गुस्सा हो जाता है. अरे भाई तुम्हें यदि पढ़े लिखे नहीं हो तों चतुर्थ श्रेणी के ओहदेदार के ही रूप में काम करना पडेगा. झाडू मारने वाले को क्या बड़े बाबू कहा जाएगा? जाति प्रथा सदा रही है. अभी भी है तथा सदा ही रहेगी. एक आदमी के चार लडके है. एक डाक्टर, दूसरा इंजिनियर, तीसरा वकील तथा चौथा अध्यापक . अब वह अपने अध्यापक लडके से जो संतान होगी उसे यही कह कर बुलाएगा कि वह मास्टर के लडके को बुलाओ. और आगे चल कर कालान्तर में वह मास्टर जाति बन जायेगी. डाक्टर क़ी खानदान कालान्तर में डाक्टर नाम क़ी जाति बन जायेगी. किन्तु क्या यह अफसोस क़ी बात नहीं है कि ऐसे ही हठी, पाखंडी एवं बेशर्म लोग निर्दिष्ट कार्य को न कर सकने के कारण उस काम को ही निकृष्ट क़ी संज्ञा दे रहे है तथा यदि उस कार्य के साथ उनको जोड़ दिया जाय तों उन्हें यह कटु सत्य चुभ जाता है. यही कारण है कि लोग अपनी जाति को छिपाकर अपना उप नाम बताने में शर्म महसूस कर रहे है. यदि दम है तों काम करके अपनी जाति बदल लो. राजर्षि विश्वामित्र गुरु वशिष्ठ क़ी तरह ब्रह्मर्षि नहीं थे. किन्तु तप के बल पर उनको सफलता मिली. तथा वह भी ब्रह्मर्षि क़ी संज्ञा से विभूषित हुए. लेकिन यही बात यदि उन्हें याद दिला दी जाती है तों उन्हें ज़हर जैसा लग जाता है. तों सच्चाई को स्वीकार कर नहीं सकते. हिम्मत नहीं है जो सच्चाई का सामना कर सकें. और थोथी रचना जिसका कोई तुक नहीं, कोई रूप नहीं उसे सबको जबरदस्ती पढ़ने या प्रतिक्रिया देने को कहते है. ऐसी बातें कौन कहता है? जिसकी रचनाएँ बहुतो को पसंद नहीं. अरे भाई यदि किसी को पसंद नहीं है तों यह क्या जबरदस्ती है कि उससे अपनी बकवास को पढ़वाओ. ऐसे लोगो का एक गैंग बन गया है. तुम मेरी रचना पढो. मै तुम्हारी रचना पढूंगा. तुम मेरी रचना पर वाह वाही दो मै तुम्हारे लेख पर शाबासी दूंगा. अब अगर नया कोई पढ़ने वाला नहीं मिलता है या यदि कोई उसकी बकवास को सतही हकीकत दिखा देता है तों वह उबल पड़ता है. और अंगूर खट्टे हो जाते है. पण्डित आर. के राय प्रयाग
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