कुण्डलिनी वह साधन या उपाय है जिसे सहज ही साधना द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है. किन्तु सर्व साधारण में यह एक भयमूलक भ्रम व्याप्त है कि यह संभव नहीं है. थोड़ा देखें तो सही—-
सब को पता है कि शरीर से ही शरीर उत्पन्न होता है. कारण शरीर में ही वह तत्व या ऊर्जा बनती या मिलती है जो पुनः अपने सदृश एक नवीन शरीर निर्माण की क्षमता रखती है. जिसे वीर्य या रज कहा जाता है. यहाँ तक कि जैविक अनुकृति जिसे आज के विज्ञान में क्लोम कहा गया है वह भी शरीर से ही संभव है. किन्तु ऐसा नहीं कि शरीर जब एक नये शरीर को जन्म दे देता है तो वह शरीर समाप्त हो जाता है. बल्कि पुनः ऊर्जा एकत्र कर के दूसरा शरीर उत्पन्न करता है. शायद इसे ही ध्यान में रखते हुए इस मन्त्र का निष्पादन हुआ है-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते.
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते.
अर्थात वह स्वयं भी पूर्ण है. उसने जो बनाया है वह भी उसमें से निकलकर पूर्ण है. उस पूर्ण में से यह पूर्ण निकलकर भी वह पूर्ववत पूर्ण ही बचा है.
इतनी बड़ी ज़टिल मशीनरी एवं उसके लिये उपयुक्त ईंधन इस शरीर के अन्दर स्थित है. एक पूर्ण मस्तिष्क युक्त शरीर के निर्माण की क्षमता इस शरीर के अन्दर विद्यमान है. किन्तु जैसा कि सबको पता है परमाणु बम को दो तरह से प्रयोग में लाया जा सकता है-प्रथम विध्वंसकारी कार्य में तथा दूसरा निर्माण कारी कार्य में. विध्वंशकारी कार्य में समस्त प्राणिजगत का सर्वनाश किया जा सकता है. निर्माणकारी कार्य में इससे विद्युत् आदि उत्पन्न कर जीवजगत के लिये विविध लाभकारी संयंत्र-पदार्थ निर्मित किये जा सकते हैं.
ठीक इसी प्रकार इस मानव निर्माण कारी संयंत्र या समस्त सृष्टि की संरचना करने वाले संयंत्र जो हमारे अन्दर विराजमान है उसे प्रयोग में लाकर विविध सुख आदि लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं. इसके अन्दर समस्त जगत का सच्चा सुख भरा पडा है. जिस प्रकार से इ परमाणु बम से विद्युत् उत्पन्न्कर अन्धेरा दूर करने के लिये बल्ब, ट्यूब आदि जलाना, एयर कंडिशनर चलाना, रेलगाड़ी चलाना आदि किया जा सकता है. उसी प्रकार इस अति ज़टिल मशीनरी से विविध ज्ञान- रोग पर विजय, शत्रु पर विजय, परकाया प्रवेश, अंतरिक्ष भ्रमण आदि किया जा सकता है. और—
इसी मशीनरी को मतान्तर से “कुण्डलिनी” कहा गया है.
इसका निवास उपस्थ अर्थात मलमार्ग एवं मूत्रमार्ग जहाँ से एक दूसरे से पृथक होते हैं वही पर है. यहाँ पर शरीर की समस्त नाड़ियाँ एकत्र रहती है, सारे शरीर से प्रत्येक तरह की संवेदना-सूचना तथा अनेक ज़टिल पदार्थो को लाकर यहाँ पर एकत्र रखती है. इस स्थान पर एक विशेष एवं अलौकिक आभा या दिव्य शक्ति ज्योति भरी रहती है. यहाँ सारे शरीर का सत (Extract) एकत्र रहता है. जिससे यहाँ का आभामंडल विचित्र ज्योति से आलोकित रहता है. तभी तो इस मशीनरी या “कुण्डलिनी” के पास इतनी शक्ति होती है कि सकल ज्ञान को अपने अन्दर भंडारण कर लेने की शक्ति वाले मस्तिष्क से युक्त शरीर को पैदा कर देती है.
किन्तु —
जैसे एक बीज चाहे कितना भी शुद्ध, वैज्ञानिक रूप से परिशोधित एवं विविध उर्वरकों एवं औषधियों से परिमार्जित हो तथा चाहे कितनी भी उपजाऊ जमीन में क्यों न बुवाई किया जाय, जब तक उस जमीन में नमी नहीं होगी या मिटटी तपती रहेगी, वह बीज अंकुरित नहीं होगा, बल्कि इसके विपरीत तपती भूमि में वह जलकर नष्ट हो जायेगा.
यही स्थिति कुण्डलिनी की है.
हम इसका प्रयोग मात्र काम, कामना एवं कामिनी के सम्बंध या सन्दर्भ में ही करते हैं. इसे ही लक्ष्य कर के भागवत गीता में कहा गया है कि-
अर्थात बाह्य जगत के झूठे भ्रम में डालने वाले चकाचौंध से घिरा मन अपनी सहयोगियों अर्थात इन्द्रियों के माध्यम से कुण्डलिनी को घेर रखा है. यह चकाचौंध ही विविध काम या कामना उत्पन्न करता है. और यही कामना अपना उपसंहार करने वाली कामिनी का सहयोग प्राप्त करता है यह सोचकर कि अब तो उसका उपसंहार अर्थात अंतिम आनंद प्राप्त होगया, किन्तु यह तो एक सदा चलने वाली प्रक्रिया है. उन्द्रव्यों के माध्यम से नयी कामना उत्पन्न हो जाती है. इस प्रकार मन को यह दिखाई देता है कि जिस काम को पूरा हो गया समझा वह तो अभी भी वर्तमान है. और इस प्रकार उसे अपनी इस असफलता पर क्रोध उत्पन्न होता जाता है. इसीलिये गीता में यह कहा गया है कि काम से क्रोध उत्पन्न होता है. पुराण के इस वचन को देखें जो इसका सामर्थ करता है-
“स्त्रीसंगाज्जायते पुंसां सुतागारादिसंगमः.
यथा बीजांकुराद वृक्षों जायते फल पत्रवान.
अस्तु, जब इस कुण्डलिनी का प्रयोग हम यह सोच कर आरम्भ करेगें कि इसका दूसरी तरह उपयोग किया जाय जिससे पूर्ण सुख मिले, वह कामिनी वाला नहीं जो समाप्त ही नहीं होता है, और बार वह सुख प्राप्त करना पड़ता है फिर भी तृप्ति नहीं होती, तब इस पर से काम का आवरण समाप्त हो जाएगा. यह कुण्डलिनी काम से अलग हो जायेगी. और यह सुख- अनंत सुख उत्पन्न करने की दिशा में अग्रसर हो जायेगी. फिर उसे शरीर उत्पन्न करने का कार्य छूट जाएगा. और वह अब धीरे धीरे ऊपर उठना शुरू कर देगी —-अंतरिक्ष में व्याप्त सुख की खोज में——ब्रह्माण्ड में व्याप्त सच्चे सुख—सत्य की खोज में जिसके अलावा अन्य कोई सुख है ही नहीं—-और जिसे मिल जाने के बाद पुनः अन्य किसी सुख की आवश्यकता ही नहीं रह जायेगी.—-कुंडलिनी का अंतिम सुख—लक्ष्य प्राप्त हो जाएगा. और धीरे धीरे यह कुण्डलिनी ब्रह्मरंध्र से होकर अंतरिक्ष में व्याप्त हो जाती है. शरीर से इसका कुछ लेना देना नहीं रह जाता है. ——-
योग की इस पराकाष्ठा के द्वारा ही मनुष्य दूसरे के शरीर में उसी ब्रह्मरंध्र के द्वारा प्रवेश कर जाता है जिसे परकाया प्रवेश कहा जाता है. इसी तरीके से योगी या तपस्वी या ज्ञानीजन दूसरे के शरीर में प्रवेश कर दूसरों के मन की बात जान जाते हैं, उस व्यक्ति के अन्दर स्थित व्याधि, दुःख तथा आकांक्षा आदि का निवारण करते है. और पुनः अपने शरीर के ब्रह्मरंध्र से वापस पहुँच जाते हैं.
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