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दत्तक गोद लिया हुआ पुत्र कभी अपना पुत्र नहीं हो सकता-

वेद विज्ञान
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दत्तक गोद लिया हुआ पुत्र कभी अपना पुत्र नहीं हो सकता-
पश्चिमी संस्कृति में अपने शरीर को सदा जवान बनाए रखने के लिये स्त्री-पुरुष प्रायः संतान उत्पन्न करना नहीं चाह रहे हैं. अन्यथा उनकी “जवानी” तथा लालगुलाल सुन्दर आकर्षक दिखाई देने वाले बदन पर से “नूर” उतर जायेगा तथा उन्हें कोई “हूर” जानकार उनकी तरफ देखना छोड़ देगा. इसलिये गोद लिये पुत्र से ही अपने को पुत्रवान होने का संतोष कर ले रहे हैं.
यद्यपि भारत में भी अब इस प्रवृत्ति का प्रचलन जोर पकड़ रहा है. किन्तु कुछ एक ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं कि जिससे स्त्री पुरुष निःसंतान रहना ज्यादा पसंद कर रहे हैं बनिस्पत ऐसे पुत्र के द्वारा माँ-बाप कहलाने के.
यद्यपि दत्तक गोद लिया हुआ पुत्र मात्र संतान की एक प्रकार है जो केवल कहने के लिये होता है. वास्तव में यह पुत्र होता नहीं है.
कभी किसी काल में व्यभिचारिणी, छिप कर मुंह काला करने वाली वैश्या के समान औरत जो अपने आप को समाज में भी इज्जतदार बनाये रखना चाहती होगीं, अपने यौनव्यसन के पापकर्म को छिपाने के लिए अपने नवजात शिशु को झाडी में एवं कचरे में फेंक दिया करती थीं. समाज सुधार एवं शिशु रक्षा के किसी तात्कालिक अभियान ने ऐसे बच्चों को समाज की मुख्य धारा में लाकर उनके प्राणों की रक्षा हेतु ऐसे पालित-दत्तक पुत्र आदि को सामाजिक स्थान देने का प्रयत्न किया.
अन्यथा वेद में तो ऐसे पुत्र की कोई मान्यता ही नहीं है–
“न हि ग्रभायारणः सुशेवोSन्योदर्यो मनसा मन्तवा उ.
अधा चिदोकः पुनरित्स ऐत्या नो वाज्यभीषाडेतु नव्यः.”
(ऋग्वेद 7/8/4)
अर्थात जो दूसरे के पेट से उत्पन्न हुआ है, उसको कभी अपना पुत्र नहीं समझना चाहिये. अन्योदर्य पुत्र का मन सदैव वहीँ जायेगा जहाँ से वह आया है, इसलिये अपने ही पुत्र को सदा अपना पुत्र समझना चाहिए.
इसलिये भैषज्य प्रवर्त्तक ऋषि-मुनि तथा देवताओं आदि ने अभिशप्त-निःसंतान-बाँझ दम्पत्तियों के लिये वैदिक प्रक्रिया में कम से कम एक संतान पैदा हो, ऐसा उपाय (मणि-मन्त्र-औषधि) भी उत्पन्न-प्रवर्तित किया-
“स ना अत्र युवतयः सयोनीरेकं गर्भं दधिरे सप्तवाणिः.”
(ऋग्वेद 3/6/1)
अर्थात सप्तपदी (विवाह) की हुई युवती स्त्रियाँ कम से कम एक गर्भ अवश्य धारण करें.
इसके लिये अथर्ववेद में बहुत सशक्त तथा सिद्ध उपाय बताया गया है-
“अंतरिक्षेण पतिता विश्वा भूतावचाकशत.
शुनो दिव्यस्य यन्महस्तेना ते हविषा विधेम.
अथर्ववेद भाग 1 कांड 6 सूक्त 80 मन्त्र 1)
——
यन्तासि यच्छसे हस्तावप रक्षांसि सेधसि.
प्रजां धनं च गृहणानः परिहस्तो अभूदयम.
अथर्ववेद भाग 1 काण्ड 6 सूक्त 81 मन्त्र 1
——
यं परिहस्तमबिभरादितिः पुत्रकाम्या .
त्वष्टा तमस्या आ बध्नाद यथा पुत्रं जनादिति.”
अथर्ववेद भाग 1 काण्ड 6 सूक्त 81 मन्त्र 3
यदि ऋग्वेद के इस उपरोक्त अंतिम मन्त्र के रेखांकित  “पुत्रकाम्यया” शब्द को देखें जिसमें त्वष्टा को कहा गया है कि पुत्र लाभ हेतु (निःसंतान दम्पति को) पुत्रमेखला बाँध दो ताकि यह औरत भी पुत्र जन्म देने में सशक्त एवं सफल हो जाय. इसी क्रम में उपरोक्त प्रथम मन्त्र में यह बताया गया है कि अंतरिक्ष से पतित अर्थात किरण-ज्योति से आवेशित मणि को हाथ की लम्बाई के अनुपात में कुशा का अग्रोहण बनाकर उस पर स्थापित करते हुए निर्लोय, अधःबाजि तथा कदली के फूलों से निर्मित सत के अभिषेक के पान से सतत अभिशप्त बाँझ औरत भी पुष्ट गर्भ धारण करते हुए स्वस्थ संतान को जन्म देने में सक्षम हो जाती है.
याद रहे- निर्लोय में Delomethedaen, अधःबाजि में Cenechromite तथा कदली अर्थात केले के सत (Extract) में Chemodevidan शुद्ध मात्रा में तथा प्रचुर रूप में पाए जाते हैं. हस्तावप से उपरोक्त मन्त्र में देवधिती, वैशालिक, व्यतिलोमा एवं कर्णभानु नामक मणियों का संकेत है.

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