पिछले दिनों के आयोजित कैम्प में 1470 विविध व्याधि ग्रस्त लोगों का बहुविध परीक्षण किया गया. इसमें गठिया, संधिवात, आमवात, मधुमेह, रक्तरोग तथा स्त्रियों की अन्य व्याधियों की अधिकता रही. ज्यादातर वे लोग थे जो एक लम्बे अरसे से एलोपैथिक चिकित्सा कराकर ऊब चुके थे. यद्यपि आगंतुकों की संख्या लगभग साढ़े तीन हजार से ऊपर थी. किन्तु किन्ही कारणों से सब का परीक्षण एवं उनको औषधीय या ज्योतिषीय सहयोग नहीं दिया जा सका. कारण यह है कि गंठिया के रोगी के परीक्षण हेतु उसके घर का पानी एवं चावल या रोटी पकाने वाला कोई बर्तन साथ में लेकर आना अनिवार्य था. लेकिन उनमें से बहुतों के पास नहीं था. इसी प्रकार मधुमेह के रोगी को अपने घर के दक्षिणी कोने के जमीन की मिटटी तथा घर के चारो तरफ के घेरे में उपजे किसी घास या पौधे के जड़ का टुकडा अनिवार्य है. वैसे बता दिया गया है कि आगली बार ये सब पदार्थ लेकर आने हैं.
इस लेख का उद्देश्य कुछ विदेशी उत्सुक एवं इच्छुक व्यक्तियों का शंका समाधान है.
यद्यपि मैं बहुत पहले ही इसके बारे में बहुत कुछ लिख चुका हूँ. किन्तु कुछ विशेष तकनीकी पर उनका ध्यान केन्द्रित रहा.
गठिया एवं मधुमेह की उत्पत्ति शरीर के पांच अवयवों के अनियंत्रित तथा अव्यवस्थित हो जाने के कारण होती है. अग्न्याशय, पित्ताशय, संग्रहणी, यकृत एवं प्लीहा. अग्न्याशय से उत्पन्न अनियमितता मंदक्षार (Dexophilathenin), पित्ताशय से उत्पन्न अनियमितता अनुवर्ज (Melothianelon), संग्रहणी से सिंहश्राव (Septradenilic), यकृत से भानुकर्ष (Rotoniyathinol) एवं प्लीहा से बहुबन्ध (Triodevilae) के कारण प्रधान रूप से होती है. उपर्युक्त प्रत्येक के रासायनिक संरचना में प्रान्ग्जीवक (Cellular Metachlophinol) ही होता है. तथा यह पित्ताशय तथा अग्न्याशय आदि की कोशिकीय भित्ति (Cellular Wall) के पृष्ठ द्रव्य अनुसार गंधक, अग्निशिला, सुधांशु आदि के अनुसार अपना गुण प्रस्तुत करता है .
किन्तु आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा इन्हें मात्र तीन श्रेणियों में बाँट कर दवा देती है. अवरोध, प्रतिरोधक एवं परिवर्तक. या दूसरे शब्दों में यह औषधि निरंतर लेते रहने से इसे रोखे रखा जा सकता है. किन्तु यदि प्रान्ग्जीवक के Mitochondria में आवेश विसर्जन एक सामान ही रहा तो इसमें प्रतिरोधक क्षमता भी समाप्त हो जाती है. तथा यह उपर्युक्त औषधि के प्रभाव से पृथक हो जाता है. यही स्थिति गठिया आदि में भी होती है.
किन्तु यदि प्रान्ग्जीवक के आवेश को निरंतर बदल बदल कर प्रेषित तब तक किया जाय जब तक उसकी ऊष्मा वाहिनी उस Mitochondria की परिधि के चारो तरफ लिपट कर घेरा न बना ले तो मंदक्षार तथा भानुकर्ष आदि सुदृढ़ रूप से अपनी पुरानी अवस्था में आ जाते हैं.
इसके लिए चरक की सम्मति का अनुकरण करते हुए आचार्य वृषदत्त ने एकादशश्रिंग की व्यवस्था की है. किन्तु उसमें मदालसा, अलिकावर, तथा गोंठ का भाग निश्चित किया है. यह उचित भी था. परन्तु वर्तमान समय में इनका रस नीरालवण लुप्त हो गया है. तथा यही कारण है कि इससे निर्मित औषधियां इन व्याधियों पर प्रभावी नहीं हैं.
हमने यही परीक्षण किया. मदालसा, अलिकावर तथा गोंठ के स्थान पर वृहज्जंघ, खेरघट तथा रत्नगेर के प्रयोग से यह बहुत तीव्र प्रभाव वाली प्रमाणित हुईं. इसके लिए मात्र मधुमेह की 17, प्रमेह की 9, गंठिया की 7 तथा रक्तरोग की 13 औषधियों का निर्माण किया. जो प्रत्येक प्रकार से एक ही व्याधि की विविध अवस्थाओं के लिये तार्किक, प्रामाणिक एवं प्रभावी प्रमाणित हो चुका है.
मेरे एक फ़ेसबुक पाठक जो संभवतः अमेरिका के मोंत्रियाल के किसी चिकित्सालय में चिकित्सा निदेशक हैं, उन्होंने इस विषय पर प्रश्न उठाया था. यह वाकया फरवरी 2016 का है. शायद उनका नाम मेह्यूम एन पैत्रिना है, उन्होंने भी इसकी तीन ही श्रेणियां ही निर्धारित की थीं. किन्तु अन्धानुकरण करते हुए उन्होंने भी इसे पांच श्रेणियों में अनुमान के सहारे इसे बाँट लिया. उन्हें आश्चर्य जनक सफलता प्राप्त हुई है. किन्तु इसका आधुनिक रसायन विज्ञान से कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हो सका है क्योकि उपर्युक्त अति जटिल रासायनिक यौगिकों का विश्लेषण आधुनिक प्रयोगशाला में असंभव है. अतः इसे वह महाशय अधिकृत तौर पर घोषित नहीं कर सकते हैं.
मैं भी इसका आधुनिक विज्ञान के तौर तरीकों पर प्रतिस्थापन या विश्लेषण नहीं कर सकता. किन्तु आधुनिक चिकत्सा विज्ञान इन ऊपर्युक्त व्याधियों पर कोई ठोस दवा नहीं बना सकता.
इसका हमने अपने ज्योतिषीय विधान पर और भी थोड़ा सूक्ष्म विश्लेषण किया जिससे उपर्युक्त द्रव्यों में थोड़ा परिवर्तन करना पड़ता है. जैसे यदि बारहवें या छठे भाव में सप्तमेश अथवा लग्नेश का त्रिबंध या परिवेश संचार हो तो कुछ अन्य रसों को भी मिला देने पर औषधियों के गुण में विशेष प्रभाव उत्पन्न हो जाता है. उदाहरण स्वरुप गठिया के सम्बन्ध में परिसूचिका या वात्वह्नी के संकोच को स्पष्ट करने के लिये अमलतास या अमरबेल के पत्तों एवं जड़ के पाक किये रस की भावना देने से यह वेग पूर्वक काम करने लगता है.
आचार्य नृपसेन इसे सात श्रेणियों में बाँट कर इसका निदान बताये हैं. किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तृणमेरु, दैवक एवं रैकसा नाड़ियों का प्रयोग लुप्त या निरर्थक प्राय हो गया है. जिससे निधर्वन (Premetholis) एवं श्रृंगकेर (Zylom Cholerae) इन दोनों का रोग से सम्बंधित होना निरर्थक है.
हम इसे डेढ़ वर्ष तक लगभग निरीक्षण एवं परीक्षण के तौर पर देखते रहे.
अतः मात्र इन उपर्युक्त व्याधियों के प्रतिरोधन की दवा की गयी तो इन औषधियों का गलत प्रभाव भी भविष्य में देखने को मिल सकता है.
विशेष= हम इन औषधियों को बेचने के उद्देश्य से नहीं विकसित करते हैं. केवल लोगो की मांग पर बनवाते हैं. अतः अधिकृत तौर पर या शासकीय सहयोग या से नहीं बनाते.
मैं इस लेख से अपने उन विदेशी विद्वानों को अपनी बात बताने का प्रयत्न किया हूँ जिन्होंने अपनी शंका ज़ाहिर की थी.
This website uses cookie or similar technologies, to enhance your browsing experience and provide personalised recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy. OK
Read Comments