आज ये चारो एक दुसरे से शतप्रतिशत सम्बद्ध हो चुके हैं. इसका कारण है इनकी आधुनिक एलोपैथ विज्ञान की औषधियां. और यह निश्चित है कि जिसने एलोपैथिक दवाइयों से इनमें से किसी एक रोग से राहत पाया होगा उसे दूसरा रोग अनिवार्य रूप से हो गया होगा. यह बात इंग्लैण्ड के हारवर्ड शायर विश्वविद्यालय तथा अमेरिका के मोंस्ट्रियाल फेरोड़ेरिक मेडिकल इंस्टिट्यूट एक मत से स्वीकार किया है.
यद्यपि इनकी प्रकृत्ति एवं स्वभाव-गुण के आधार पर मैंने यह तथ्य वर्ष 2012 में ही बता दिया था. किन्तु मेरे पास कोई अनुसन्धानशाला या पंजीकृत संस्थान तो है नहीं जिसके आधार पर मैं कोई प्रत्यक्ष प्रमाण दे सकूं. मेरे पास एक ही प्रमाण था कि सेना के चिकित्सालयों द्वारा चिकित्सा करवाने के उपरांत जो भी हजार दो हजार सेना के कर्मचारी मिले वे इससे पीड़ित मिले. इसके अलावा लगभग हजार के लगभग अन्य रोगी भी मिले जो इस अनियमितता से पूर्णतया पीड़ित हो चुके थे. इसका एक मात्र सफल एवं पूर्णतया प्रभावी इलाज ध्यान, धैर्य एवं विश्वास के साथ आयुर्वेदीय वानस्पतिक इलाज ही है.
यदि किसी को पहले से रक्तचाप या ह्रदय रोग है तो वह पञ्चमूल, सप्तरत्न, त्रिरस एवं त्रिबेलसत का प्रयोग करे किन्तु बिना वत्सनाभ या अश्वगंधा के.
यदि किसी को पहले से गंठिया या संधिवात, आमवात या पक्षाघात हो तो भूर्ज, काठियान, मल्हारसूत एवं गूगल का योग ले किन्तु बिना सप्तश्रींगी एवं नीलपर्णी के.
इन वनस्पतियों, भस्म एवं रसों का विवरण मैं अपने पहले लेखों में दे चुका हूँ. इससे तात्कालिक व्याधि से तो मुक्ति मिलती ही है, साथ में किसी अन्य व्याधि के होने की कोई संभावना नहीं रह जाती. यह पूर्णतया सिद्ध, अनुभूत एवं प्रामाणिक है.
कुछ औषधि निर्माता रुद्राक्ष का भी सहयोग लेते हैं तथा उसके चिरयौवना (चिरौना) के साथ योग बनाकर हृदयरोग में प्रयुक्त करते हैं. ऐसी अवस्था में स्रंजना का मिश्रण आवश्यक होगा. किन्तु रुद्राक्ष वर्तमान में सबसे महँगी वनस्पति है. और यह केवल धनाढ्य लोगों के वहन करने योग्य ही है. सामान्य लोगो के लिये यह योग असंभव ही लगभग है.
यह विषय मैं बार बार सोशल एवं इलेक्ट्रोनिक तथा प्रिंट मीडिया पर दे रहा हूँ क्योकि यह समस्या आज एक महामारी का रूप धारण कर चुकी है. तथा क्षणिक राहत के लिये लोग एलोपैथिक दवाओं के सेवन से अपने आप को सदा सदा के लिये भयंकर घातक रोगी बनाते चले जा रहे हैं.
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