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यथार्थबोध

अनथक
अनथक
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फिर भी यथार्थबोध नहीं होता !!!
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bodh1
बितरसम मन अज़ किरद गाहे जहाँ ,
कि दानद हमीं आशकारो निहाँ |
– फ़ारसी कवि फ़िरदौस तूसी
अर्थात , हे ईश्वर , तू मेरे अंतःकरण के भेद को जानता है | तू मेरे मन के भीतर जो कुछ है , सब देख रहा है |
इस अहसास के साथ मनुष्य को अपने अंतःकरण के स्वर को सुनना चाहिए | गुरु नानक जी कहते हैं –
जै – जै सबदु अनाहदु बाजै ,
सुनि – सुनि अनद करें प्रभु गाजै |
अर्थात , धन्य है वह जो अनहद [ अर्थात , असीम शब्द या विचार अथवा असीम चेतना ] को सुन सकता है और जिसके नाद को सुनकर [ अर्थात , जिसके स्पर्श को या जिसको प्राप्त करके ] वह असीम सुख का भोग करता है |
मनुष्य जब सृष्टि के आयामों – उपादानों एवं उसके सौन्दर्य को देखता है तो उसके मन में कभी यह विचार आता ही है कि यह सब क्या और क्यों है ? मिर्ज़ा ग़ालिब सहज ही कह उठते हैं –
ये परी चेहरा लोग कैसे हैं ?
गमज़ा व इशवा व अदा क्या है ?
शिकने ज़ुल्फे अंबरी क्या है ?
निगहे चश्मे सुरमा- सा क्यों है ?
सब्ज़ा व गुल कहाँ से आये हैं ?
अब्र क्या चीज़ है , हवा क्या है ?
कुछ लोग जीवन के नाना रूपों को देखते हैं , किन्तु उन्हें यथार्थ – बोध नहीं होता . ग़ालिब के शब्दों में –
इक मुअम्मा है समझने का , न समझाने का
जिंदगी काहे को है , खाब है दीवाने का |
कुछ लोग इसे सच्चाइयों का बोलता हुआ साज़ बताने लगने हैं –
महरम नहीं है तू ही नवा -हाए-राज़ का
यां वरना जो हिजाब है पर्दा है साज़ का |
लेकिन कुछ की नज़रें इनके पीछे वास्तविक प्रिय के जलवों की अनुभूति कर लेतीं हैं –
है तजल्ली तेरी सामाने वजूद
ज़र्रा -बे परतवे खुर्शीद नहीं |

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