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बेगानी शादी में दीवाने अब्दुल्ला

अभिव्यक्ति
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न न्योता, न हकारी, फिर भी हुलस रहे थे लोग। मीडिया गिर-गिर पड़ रहा था। सारे चैनलों में पूरे देश और विश्व की समस्याओं पर एक शादी भारी पड़ी। न्योता को कौन कहे, जो हकारी के भी हकदार नहीं हुए, वह भी लाइन लगाये खड़े थे। बेगानी शादी के ये अब्दुल्ला दीवाने कब सुधरेंगे। कब इनकी सोच बदलेगी, यह सोचने की जरूरत है। इसके लिए लगातार अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले कमराबंद मीटिंगों में एक दूसरे के कसीदे काढऩे वालों की जिम्मेदारी अब कमरे से निकलने की बनती है। यह सोच बदलेगा कौन। पूरी दुनिया से राजतंत्र और तानाशाही का अंत हो रहा है। यह कैसा अंत है। अंत तो जेहन से होना चाहिए इस परंपरा का। इसके लिए पूरी जेहनियत बदलने की जरूरत है।
हमारे सामाजिक ढांचे में कहीं न कहीं एक फ्यूडल सिस्टम जिन्दा है। जिनके पास कभी जागीरें थीं। उनकी आद-औलाद अब तक उसका बखान करती आ रही हैं। हमारे अब्बा हूजूर ऐसे थे, हमारे पिता जी ऐसे थे। रियाया को कैसे काबू में रखना है, वह जानते थे, आदि-आदि। यह वही सिस्टम है, जो हमारे घरों में आज तक किसी दलित के लिए अलग खान-पान की व्यवस्था को कायम रखे हुए। दलितों में चौधरी परंपरा ठीक वैसी ही है, जैसी सामंतशाही। उनमें भी जातीय ऊंच-नीच है। वे एक नहीं हो पा रहे।
यहां सवाल शाही शादी का है। किसी के घर का विवाह समारोह हमारे लिए खबर क्यों हैं? हमारी इस शादी को लेकर उत्सुकता क्यों हैं? क्या हमें इसके लिए प्रेरित नहीं किया जा रहा है? यह प्रेरणा कौन दे रहा है? यह एक अहम सवाल है। इस बात का जवाब है कि हमारी जेहनियत नहीं बदली।
जेहनियत बदलने के लिए जो प्रयास राजनैतिक स्तर पर होने चाहिए थे, उसके ठीक उलट ही होता रहा। आजादी के बाद भी राजे-महाराजे संसद की शोभा बढ़ाते रहे हैं। जिस तरह से राजा भवानी सिंह के निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी की पगड़ी की रस्म हुई है, वह भी शाही शादी के कमतर नहीं आंकी जानी चाहिए। इसके पहले भी एक राजघराने एक शादी चर्चा में रही, जिसके कई सदस्य संसद और विधानभवन में मंत्री और मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ाते रहे और बढ़ा रहे हैं। यानी इन राजे-महाराजों ने येन-केन प्रकारेण अपनी सत्ता अभी कायम रखी है। यह घराना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस घराने के सदस्य अलग-अलग और परस्पर ध्रुव विरोधी दलों में हैं। इनके रिश्ते-नाते वाले तो कई दलों में समान प्रभाव रखते हैं।
जब नोट और बाहुबल की राजनीति की बात आती है, तो इन्हीं राजघरानों का कहीं न कहीं उसमें हाथ नजर आता है। इस समय भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान में सर्वाधिक शक्तिशाली महिला और उनके परिवार के एक सदस्य को उसके संसदीय क्षेत्र में दो प्रभावशाली राजपरिवार का सहयोग मिलता रहा है। यह सहयोग उनकी सास, देवर और पति के समय में भी था।
यानी यह साफ है कि जब राजघरानों का प्रभुत्व राजनैतिक दल ही स्वीकार कर रहे हैं, तो उनकी कितनी रुचि इस देश में जन तांत्रिक ढांचे को खड़ा करने में होगी। वे तो केवल सत्ताधीश बनने के लिए जो भी हो रहा है, वह कर रहे हैं। ऐसे में जरूरत है सामंती मानसिकता को बदलने के लिए एक जनतांत्रिक, लोकतांत्रिक मानसिक तैयार करने की। आज की समस्याओं की जड़ दरअसल इस जेहनियत में ही है। जैसे ही इस देश का व्यक्ति लोकतांत्रिक रूप से सोचने लगेगा, विचार करने लगेगा, समस्याएं अपने-आप खत्म हो जायेंगी।
शाही शादी आप सबसे इस विचार को साझा करने का बहाना है। बहाना होने के साथ ही यह मुद्दा भी है कि शाही शादी में लोकतांत्रिक सत्ता को सर्वाधिक महत्व देने वाले इस विश्व में क्या स्थान मिलना चाहिए। कोई अपने घर में कैसे नाचे-गाये बैंड बजाये, आपको उससे क्या। आप तो निमंत्रित नहीं हैं। यह आपके राजा राम की बारात नहीं हैं, जिसमें हर खासोआम निमंत्रित हो। तो सज्जनों इस बात को आगे बढ़ायें, लोकतांत्रिक बनें, बनाएं। तभी रामराज्य आयेगा।

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