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असीमानंद का सच

अभिव्यक्ति
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स्वामी असीमानंद के 164 के बयान पर एक और बयान पढ़ा। यह बयान उनका है, जो पाकिस्तान से आये हैं, पत्रकार हैं, कालम लिखते हैं। भारत-पाकिस्तान एकता के मंसूबे बांधते, ख्वाब देखते उनके दिन गुजर गये हैं और गुजर रहे हैं, लेकिन सारी हकीकतों के बावजूद उनका ख्वाब नहीं टूटता। वह सच को सच मानने को तैयार नहीं हैं। सच जो था, वह पहले सामने आ गया था। अब झूठ को सच का जामा पहनाने की कोशिश हो रही है। कबूलनामे पर इतना भरोसा है तो छह-छह बार नार्को टेस्ट में कुछ न कबूलने वाली साध्वी प्रज्ञा को छोड़ देने की जरूरत है।
कोई भी किसी भी वजह से कोर्ट में खड़ा होकर 164 का बयान दे और कहे कि कांग्र्रेस अध्यक्ष ईसाई आतंकवादी संगठनों की मुखिया हैं, तो क्या उस पर सहज विश्वास कर लिया जायेगा। 164 का बयान ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में तो मृत्युपूर्व बयान भी झूठा साबित हो चुका है। फिर 164 का बयान कौन और कैसे दे रहा है, इसके बारे में पुलिसिंग पर पंजाब में प्रचलित दो चुटकुला यहां जिक्र के लायक है।
एक शहर में डकैती हो गयी। डकैतों ने लूटपाट के साथ हत्या भी कर दी। अब पुलिस को यह बड़ा नागवार गुजरा। पुलिस पार्टी गठित हुई और वह डकैतों की खोज में निकली। महीने भर पुलिस पार्टी का पता नहीं चला। दो दूसरी पुलिस पार्टी और उनके साथ कुछ सामान्य जन भी भेजे गये। जंगल में पहली पुलिस पार्टी मिली, तो दो देखा गया कि कुछ बंदर पेड़ों पर उल्टे लटके हैं और पुलिस वाले उन्हें पीट रहे हैैं। पूछने पर उन्होंने बताया कि साहब वर्क आउट कर लिया है, यह ही डकैतों का दल है। दूसरी पार्टी में गये आला अफसरों ने पूछा कि अरे बंदर क्या बोलेंगे, तो पहली पार्टी के इंचार्ज ने जवाब दिया, साहब हमारी मार के आगे पत्थर बोलने लगते हैैं, यह तो बंदर हैं।
दूसरा वाकया जरा और पुराने जमाने का है। अंग्र्रेजों का राज था। एक गर्वनर स्तर के अफसर की अंगूठी खो गई। तेज-तर्रार पुलिस अफसरों को बुलाया गया। तकरीबन सबने हाथ खड़े कर दिये, कहा साहब एक अंगूठी कैसे खोजी जा सकती है। तब तक एक अफसर ने कहा सरकार खोज तो दूंगा, अगर कुछ रसीद वगैरह हो, ताकि यह पता चल सके कि अंगूठी कैसी थी, कितनी भारी या हल्की थी। गवर्नर ने तुरंत लंदन के एक प्रसिद्ध सर्राफ के दुकान की रसीद थमा दी और साथ ही जिस तरह से वह समुद्र मार्ग से जहाज से आयी थी, उसका ब्योरा भी। पुलिस तो पुलिस, पूछताछ पहले गवर्नर से ही कर ली, यह जान लिया कि जहाज से अंगूठी कितने दिन मेंं पहुंची थी। फिर वह अधिकारी बोला कि चार महीने का वक्त दें तो अंगूठी खोज देंगे। गर्वनर साहब को कोई जल्दी तो थी नहीं, सो कहा कि ठीक है। खोजो।
खोजना क्या था, अफसर ने निकलने के साथ लंदन टेलीग्र्राम ठोंका और जैसी अंगूठी साहब की थी, वैसी बना कर भेजने का आर्डर कर दिया। अंगूठी आ गई। अंगूठी आने के साथ अफसर की छानबीन तेज हो गयी। वह पहुंचे गवर्नर के बंगले पर और करने लगे पूछताछ, अंत में निष्कर्ष निकाला कि एक माली ने चुराई है अंगूठी। लगे उसे पीटने। फिर कहा बता, नहीं तो मैैं ढूढ़ूंगा तो और पीटूंगा। अब बेचारे को पता हो, तो बताये। आखिरकार एक क्यारी में दबी अंगूठी निकाल कर पुलिस अफसर ने जांच पूरी की। साहब बहादुर का मामला था। मुकदमा भी आनन-फानन में निपट गया। माली गया जेल।
गवर्नर साहब ने एक शेरवानी बहुत दिन से नहीं पहनी थी। एक दिन उन्हें शौक हुआ तो पहन ली। जेब में हाथ डाला तो कुछ चुभा। चुभने वाली चीज जरा गोल थी। सो निकाल कर देखा, तो वह उनकी खोई हुई अंगूठी थी। फिर क्या हुआ होगा, आप सहज अंदाज लगा सकते हैैं।
समझौता एक्सप्रेस कांड के समय से ही खुफिया एजेंसियों की जो रिपोर्ट रही है, वह साफ बताती है कि क्या हुआ। लेकिन जब कुछ और ही साबित करने की मंशा हो, तो हर रिपोर्ट झूठी है। अब खुफिया एजेंसियों को सोचने को बाध्य होना पड़ेगा कि वह कौन सी रिपोर्ट दें, वह रिपोर्ट दें, जो सरकार की मंशा के मुफीद हो, या फिर वह रिपोर्ट जो सच है।
जो सच है, वह सामने है। भाजपा शासित प्रदेशों में सबसे अच्छा काम हो रहा है। इतना अच्छा काम है कि वस्तानवी जैसे वतनपरस्त और निष्पक्ष प्रगतिशील मुस्लिम उसकी तारीफ से पीछे न हटने के लिए अपनी बिरादरी की सबसे ऊंची कुर्सी भी ठुकराने को तैयार हैं। आप सोचें अगर नितीश की सरकार में लालू व पासवान का गठबंधन शामिल होता, तो क्या बिहार बदल पाता। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश से कांग्र्रेस साफ हो चुकी है। राजस्थान में काठ की हांड़ी जल चुकी है और आंध्र प्रदेश में उसकी दुर्गति तय है। बिहार में किसी ने उनकी नौटंकी को घास नहीं डाली। हिमाचल प्रदेश, पंजाब में दाल गल नहीं रही है। उड़ीसा में उनके पास कुछ है नहीं। उत्तर प्रदेश में उसके हाथ क्या आने वाला है, यह पता है। पूरे देश में कुछ भी उनके काबू में नहीं है। कश्मीर संभाले संभल नहीं रहा। महाराष्ट्र में उनकी सरकार डांवाडोल है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं। मंत्रियों के इस्तीफे लेने पड़ रहे हैैं, सफाई देते मुंह थक जा रहा है, महंगाई पर कोई लगाम है नहीं। बौखलाई सरकार यह सब कर रही है। यह बात अद्र्ध सत्य है।
असली सच तब सामने आयेगा, जब यह पता चलेगा कि घोटालों का पैसा गया कहां। कांग्र्रेस को इतने धन की जरूरत क्यों है। क्या सारा पैसा घोटालेबाज ही ले गये। ऐसा नहीं है। झारखंड में मधु कोड़ा की सरकार गिरते ही मधु कोड़ा भ्रष्ट साबित किये जाने लगे। क्या सारा पैसा मधु कोड़ा ने हजम कर लिया। भ्रष्टाचार की प्रेरणा कहां से मिली। वह राजग सरकार में भ्रष्ट क्यों नहीं हुए। कांग्र्रेस का साथ मिलते ही भ्रष्टाचार क्यों सूझने लगा।
दरअसल कांग्र्रेस में किसी को पैसों की बहुत जरूरत है। यही वही पैसा है, जिसने बीते लोकसभा चुनाव में उसके ईवीएम में वोट की बारिश की। जनता भी हतप्रभ रह गई, नतीजे देख कर। उसने क्या सोच कर वोट दिया था, क्यो हो गया। सब कांग्र्रेस से तंग थे, और संप्रग सरकार से परेशान, तो वोट दिया किसने। सरकार बनी कैसे।
अब इस सरकार के सामने विश्वनीयता का संकट गंभीर हो कर खड़ा है। इसके मंत्री ही बता देते हैं कि इतने दिन तक महंगा बेचने की छूट है। विश्वनीयता का संकट है और अत्यंत धनी देश भारत के नागरिक बहुत गरीब। उनके सामने चुनाव भी एक आमदनी का मौका होता है, थोड़ा बहुत अच्छा खाने-पीने को हासिल करने का भी यह मौका होता है। सो अगले चुनाव में सरकार कायम रखने के लिए और ज्यादा धन की जरूरत पड़ेगी।
केवल धन से काम तो चलेगा नहीं। छल भी तो करना है। छल कैसे हो रहा है, सबसे गंभीर बात यही है। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से सहमति रखने वाले संगठनों यानी संघ विचार प्रवाह से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं की जीवनी शक्ति कहां मिलती है। कार्यकर्ता कहां से मिलते हैं, यह बात साफ है कि उसे समर्पित और संयमित कार्यकर्ता संघ ही हासिल होते हैं। जो संयम कायम नहीं रख पाते, वह संघ से जुड़े भी नहीं रह जाते। तीन पूर्व मुख्यमंत्री इसके जीवित जाग्रत उदाहरण हैं। संघ के रहते कोशिशें कामयाब नहीं होंगी। कोशिशों से केवल सत्ता प्रतिष्ठान पर बने रहना ही नहीं है, इसमें सत्ता प्रतिष्ठान के जरिये ईसाईकरण की खुली छूट देने का इंतजाम करना भी शामिल है।
संघ को कैसे कमजोर किया जाये, इसका तरीका तो गांधी हत्याकांड से ही पता है। जिन्होंने पहले संघ पर प्रतिबंध आयद किया, उन्होंने जहां हड़बड़ी में काम किया, वहीं यहां सब कुछ पूरे इत्मिनान से सोच-समझ कर किया जा रहा है। जरा सोचने की जरूरत है, क्या जो बोला जा रहा है, वह सच है। सच होता तो क्या साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को अमानवीय ढंग से प्रताडि़त करने की जरूरत थी। 164 का बयान फाइलों से बाहर लाने की जरूरत भी क्या थी। यह बयान लीक करना क्यों न सरकार प्रायोजित मीडिया ट्रायल माना जाये।
इंद्रेश कुमार का नाम उछाला जा रहा है। संघ के चार प्रचारक और दो पदाधिकारी इस जांच की जद में हैं। कई अधिकारियों को एटीएस हैदराबाद ले जाकर प्रताडि़त कर चुकी है। एक को इस कदर परेशान किया गया कि उसने अपना मानसिक संतुलन खो दिया। साध्वी और उनके साथियों को कैसी यातनाएं दी गईं, यह बात कई बार उजागर हो चुकी है। इस बाबत कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप हैं और सरकार भी खामोश। बिना सहमति के नार्को टेस्ट कराने के न्यायालय के आदेश की भी धज्जी इस मामले में उड़ाई गई।
हिन्दू साधु-संतों संप्रग शासन काल में सबसे ज्यादा निशाने पर रहे। आखिर क्या ऐसा था कि जो बीते सरकारों के कार्यकाल में साधु-संत संत स्वभाव के थे, और इस सरकार के आते ही वह भूखे भेडिय़े हो गये।
उड़ीसा के कंधमाल इलाके में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और पादरी ग्र्राहम स्टेंस की हत्या से जो सच उजागर हुए हैं, उनकी चर्चा जरा कम हुई है। इस सच के आगे का सच यह है कि घोटालों का धन भी कहीं कुछ इसी तरह के कामों के लिए तो नहीं अग्र्रसारित हो रहा। ऐसा है तो यह और ज्यादा खतरनाक है। भारत के गरीबों को ईसाई बनाने की कुटिल नीति को कहां से शह मिल रही है, क्यों गरीब ही निशाने पर हैं, ईसाईकरण के।
भगवा या हिन्दू आतंकवाद का जुमला इसलिए नहीं उछाला गया है कि इस सरकार को आतंकवाद की कोई खास चिन्ता है। चिन्ता होती तो वह कश्मीर में कुछ करती और नक्सली और वामपंथी आतंकियों (सीपीआईएम की गतिविधियां भी जोड़ कर देंखे, पूरा पश्चिम बंगाल इनके आतंक की जद में है, केरल और त्रिपुरा में भी इनका यही फंडा है, लाल आतंक का) से निपटने की कोशिश करती। दरअसल हिन्दू आतंकवाद के बहाने संघ की गतिविधियों पर अंकुश लगाने की मंशा ही है, ताकि ईसाई मिशनरियों को खुली चारागाह पूर्वोत्तर राज्यों में मिल सके। केवल संघ परिवार के संगठन वनवासी कल्याण आश्रम, वन बंधु परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती और आसाराम बापू की संस्था भारत जागृति मोर्चा, साध्वी ऋतंभरा के वात्सल्य ग्र्राम प्रकल्प के अलावा कोई संगठन ईसाईकरण को थामने में जुटा है तो वह है रामकृष्ण मिशन। त्रिपुरा में रह रहे बंगाल के एक संत स्वामी विष्णु पुरी भी ईसाईकरण मिशन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
रांची के काली बाड़ी मंदिर में उन्होंने दो साल पहले अपने एक प्रवचन में स्पष्ट संकेत दिये थे कि वह भी आतंकियों के निशाने पर हैं और उन्होंने यही कहा था कि स्वामी लक्ष्मणानंद नहीं रहे, किसी दिन भी उनके साथ भी ऐसा ही होगा। कौन कब आ कर कुछ कर जाये पता नहीं और वाणी सदा के लिए बंद हो जाये। भागवत पर प्रवचन के दौरान उन्होंने भले ही यह शब्द बहुत ही सामान्य ढंग से कहे थे, लेकिन संकेत साफ थे।
यह वह संकेत हैं, जो बहुत ही खतरनाक साजिश की तरफ इशारा करते हैं। वह है भारत के ईसाईकरण की साजिश। भारतीय संस्कृति और संस्कार को उसके मूल से काटने का षडयंत्र। इसमें कोई सबसे बड़ी बाधा है, तो वह है संघ परिवार। अब संघ परिवार की संस्था विद्या भारती के विद्यालय भारी संख्या में ऐसी शिक्षा दे रहे हैं, जिसे भले ही विद्यार्थी अपने जीवन में कतिपय कारण से पूरा न उतार पाये, लेकिन वह अपनी परंपराओं से अनभिज्ञ नहीं रहेगा।
ईसाईकरण की समस्या तो अपनी जगह है ही। इस तरफ सुप्रीम कोर्ट ने ग्र्राहम स्टेंट की हत्या के मामले में अपने फैसले तक में जिक्र करने की जरूरत समझी। ताजा मजबूरी यह थी कि इंद्रेश कुमार ने संघ परिवार के लिए दो ऐसे काम कर दिखाये, जिसके लिए सालों साल से संघ के प्रचारक स्वप्न ही देखते रहे थे, पहला सैनिकों के बीच संघ का काम खड़ा करना, दूसरा राष्ट्रवादी मुसलमानों को एक मंच पर लाना।
पूर्व सैनिकों के संगठन पूर्व सैनिक सेवा परिषद में सेना के बड़े अधिकारियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है और वह इसके अभिन्न अंग बन गये हैं। सैन्य अधिकारी संघ को बहुत ही पुरातनपंथी संगठन मानते थे, उनकी धारणा बदली है। यह तो सरकार का ही स्टेटमेंट है कि संघ की सेना में पहुंच ज्यादा चिन्ताजनक है। साफ है कि वह किसी तख्ता पलट को लेकर ज्यादा चिन्तित हैं, क्योंकि और कोई चिन्ता का विशेष होने का कारण समझ में नहीं आता। एक राष्ट्रवादी संगठन का किसी से जुड़ाव कैसे देश के लिए खतरनाक हो सकता है, यह बात सोचने की है।
संघ से जुड़े आयोजनों में जहां मुस्लिम इक्का-दुक्का नजर आते थे, उनकी तादाद बढऩे लगी है। धीरे-धीरे उन्हें समझ में आने लगा है कि वह धर्म से भले ही मुसलमान हों, लेकिन उनकी जड़ें तो यहीं हैं। यह बात जिक्र लायक है कि मुसलमानों में बुनकर, दूध व फल, दर्जी का काम करने वाले तो ज्यादातर यहीं के हैं और धर्मांतरित हैं। इस जुड़ाव का बढऩा न केवल कांग्र्रेस के लिए चिन्ताजनक है, बल्कि दूसरे दलों के लिए भी स्वाभाविक चिन्ता का विषय है। दूसरी तरफ गुजरात का मुसलमान अब वोकल हो रहा है और कहने लगा है कि मोदी राज में ही वह सबसे ज्यादा सुखी है, उसकी संपन्नता बढ़ रही है। झूठ का मुलम्मा उतर रहा है।
वोट की राजनीति करने वालों के लिए यह ज्यादा चिन्ताजनक बात है कि विकास के नाम पर, समृद्धि के नाम पर वोट दिया जाने लगा तो उनके जातिगत, धर्मगत वोट बैंकों का क्या होगा। बिहार के हालिया चुनाव ने इस बात को और ज्यादा साफ किया है। मतदाता को मूर्ख समझने वालों के लिए यह एक सबक है। ऐसे में मोदी जैसे समाजसेवी तैयार करने वाले संगठन को आतंकी घोषित करने की चाल से ज्यादा मुफीद क्या हो सकता है। कसाब को चिकन बिरयानी और संन्यासिनी प्रज्ञा को प्रताडऩा देने वाली सरकार से इससे ज्यादा क्या अपेक्षा भी की जा सकती है।
स्वामी असीमानंद की स्वीकारोक्ति का सच क्या है, यह तो स्वामी ही जानें, लेकिन बंद कमरे में होने वाला 164 का बयान अब सबके सामने है। जाहिर है यह बयान स्वामी ने तो प्रेस कान्फ्रेंस करके बताया नहीं। न ही न्यायालय ने कोई प्रेसनोट जारी किया। बताने वाले वही हैं, जिन्हें येन केन प्रकारेण दुष्प्रचार करना है। दुष्प्रचारकों को यह पता होना चाहिए कि सरकारी नौकरी करने वालों को जनता के धन से मिलती है, राजनेताओं के निजी कोष से नहीं। जब जवाबदेही तय होने लगती है, तो सबसे पहले ये राजनेता सबसे पहले उनकी ही गर्दन आगे करने की कोशिश करते हैं। ऐसे में उन्हें अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभानी चाहिए। उनके दुष्प्रचार से देश को कूटनीतिक नुकसान हो रहा है। पाक प्रायोजित आतंकवाद का सच सामने आ चुका है, अब हिन्दू आतंकवाद, जिसे कभी ये संघी या भगवा आतंक भी कहते हैं, का छद्म ढांचा प्रचारित करके वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के विरुद्ध एक मुकाम पर पहुंच रही मुहिम को कमजोर कर रहे हैं। जो न देश के हित में है और न ही विश्व के। ऐसे भ्रमजाल से निजात पाने की जरूरत है। जरूरत है राष्ट्रीय संकट के समय हमेशा डट कर खड़े रहने वाले संगठन पर कींचड़ उछालने वालों को पुरजोर जवाब देने की।
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