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गंगा को रहने दो गंगा

अभिव्यक्ति
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नव उज्ज्वल जल धार हार हीरक सी सोहित।
बिच-बिच छहरति बूंद मध्य मुक्ता मनि पोहति।।
लोल लहर लहि पवन एक पै एक इमि आवत।
जिन नर गन मन बिबिध मनोरथ करत मिटावत।।
सुभग स्वर्ग सोपान सरिस सबके मन भावत।
दरसन मज्जन पान त्रिबिध भय दूर मिटावत।।
श्री हरि-पद-नख-चंद्रकांत-मनि-द्रवित सुधारस।
ब्रह्मï कमंडल मंडन भव खंडन सुर सरबस।।
शिवसिर-मालित-माल भगीरथ नृपति-पुण्य-फल।
एरावत-गत गिरिपति-हिम-नग-कंठहार कल।।
सगर-सुवन सठ सहस परस जल मात्र उधारन।
अनगित धारा रूप धारि सागर संचारन।।
(भारतेंदु हश्चिंद्र)

गंगा दशहरा पर्व शुरू हो चुका है, 11 जून को गंगावतरण का महापर्व मनाया जायेगा। गंगा मइया को पियरी चढ़ेगी, आरती होगी, दीप दान होगा, डाल चढ़ाई जायेगी और मनौती मानी जाएगी।
एक काम जो नहीं होना चाहिए, वह हो गया है, जिस गंगा को अपने लिए चवन्नी की दरकार नहीं है, उससे उसकी संपत्ति छीन ली गई है और गंदगी लाद दी गई है, अब लादी गई गंदगी की सफाई के लिए विश्व बैंक से फिर तकरीबन साढ़े चार हजार करोड़ यानी एक अरब डालर का कर्ज हिन्दुस्तान ने हासिल हो गया है।
यह कर्ज दरअसल गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए नहीं, गंगा में गिरने वाले नालों और सीवर के अवजल की सफाई के लिए है। यह बात लोगों को खराब लग सकती है, लेकिन सही यही है। क्योंकि गंगा को साफ करने की जरूरत ही नहीं है। गंगा का प्रवाह इतना सक्षम है, और इतना सबल कि वह बिना किसी मशीन के स्वयं को साफ करने की क्षमता रखता है। गंगा कराह रही है, वह अपनी रगों में दौडऩे वाले जल को दोबारा पाने के लिए बेताब है। वह अपनी सहायक नदियों के पूरे वेग को पुन: पाना चाहती है। ऐसा संभव हुआ तो जिस अनुपात को लगातार बता कर डराया जाता है, वह तो अपने आप कम हो जायेगा। यह एक अरब डालर गंगा को पता नहीं साफ कर पाये या न कर पाये, भ्रष्टाचार की गंगोत्री का नया और काफी तेज प्रवाह लायेगा। लोग इसमें नहायेंगे, डूबेंगे और तरेंगे। यकीन रखें, भगीरथ ने साठ हजार पुरखों को तारा था, तो इस मौके पर हासिल हुआ यह साढ़े चार हजार करोड़ की इस गंगोत्री में इस परियोजना को अमल में लाने लोग नहा-धोकर आने वाली कई पीढिय़ों का इंतजाम कर लेंगे। इस बार कमान पीएमओ के हाथ में है। जी हां वही पीएमओ जिसकी नाक के नीचे स्पेक्ट्रम घोटाला गंधाता रहा, लेकिन नाक को ऐसा नजला हुआ कि क्या बतायें, गंध तक न आयी।
यह परियोजना एक नए भ्रष्टाचार की नींव रखेगा, फिर से सीवर ट्रीटमेंट प्लांट लगेंगे, प्लांट फिर नाकाम हो जायेंगे और एक और प्लान बनेगा। प्लान पर प्लान, लेकिन नतीजा वही होगा।
एक बात तय है कि जो लोग गंगा को साफ करना चाहते हैं, उन्हें गंगा कतई माफ नहीं करेगी, क्योंकि गंगा को साफ करने वाले दरअसल गंगा को साफ नहीं करना चाहते। उनकी नीयत ही नहीं है गंगा को साफ करने की, क्योंकि गंगा को साफ करने की जरूरत ही नहीं है। आप मुझे इस बात पर पागल करार दे सकते हैं, लेकिन यह सच है।
दरअसल इस पूरी योजना में ही गड़बड़ी है। नदी के पानी को मोडऩे तोडऩे की मानवीय इच्छा से ही इस समस्या की शुरुआत है। गंगा के पानी में घुलित आक्सीजन और हानिकारक जीवाणुओं की मात्रा को लेकर आये दिन हाय-तौबा मचाई जाती है।
सवाल यह है कि क्या गंगा में पानी है? जो पानी गंगा में है, क्या वह गंगा का ही पानी है? जब गंगा में गंगा का पानी नहीं है तो कौन सा पानी है? जो पानी है, वह कहां से आ रहा है? क्यों इसे गंगा में डाला जा रहा है?
अब पहले सवाल का जवाब यह है कि गंगा में गंगा का पानी नहीं है। गंगा में गंगा का पानी ठीक वैसे ही है, जैसे पूजा-पाठ के लिए एक लोटे भर पानी में तोड़ा सा गंगाजल डाल कर पूरा पानी गंगा जल मान लिया जाता है, वैसे ही यह गंगा की वर्तमान हालत है। गंगा में जो पानी है, उसके बारे में बात करने से डर लगता है। क्योंकि घर के लोटे भर जिस जल में जब आप गंगाजल डालते हैं, वह जल शुद्ध हो, हम यह ध्यान रखते हैं, यहां तो जो पानी गंगा में डाला जा रहा है, वह मल जल और औद्योगिक कचरा है, जो कितना हानिकारक है, इसकी कल्पना करने मात्र से सिहरन होती है, यह तो गनीमत है, पाप-कलंक धोने वाली गंगा में आने से इस पानी का काफी कुछ दुष्प्रभाव कम हो जाता है। यह देव नदी न होती तो इसके किनारे रहने वाले हजारों लोग रोज मरते।
सच तो यह भी है कि नदी में शव प्रवाह और नदी के किनारे शव दाह, नदी में डाली जाने वाली पूजन सामग्र्री (पालीथीन के लिफाफे पूजन सामग्र्री नहीं होते) कहीं न कहीं नदी के पारिस्थितिकी (ईको सिस्टम) अंग रहे हैं। पूजन सामग्र्री में प्रसाद, माला-फूल और दूध आदि होता है, इससे नदी कैसे प्रदूषित हो सकती है, लेकिन सबसे पहला बात नदी को साफ करने के क्रम में यही कही जा रही है कि शव नदी में न प्रवाहित करो, यह आधारभूत गड़बड़ी है। पूजन सामग्र्री और शव नदी में बचते ही कितनी देर हैं। पूजन सामग्र्री व शव नदी के जलजीवों का चारा है भाई। शव दाह के बाद भी कुछ ऐसी हड्डियां हैं, जो जलती नहीं, उन्हें सिर्फ कछुए ही खा पाते हैं। यही नहीं लोग मूर्ति विसर्जन को लेकर भी विरोध कर रहे हैं। ये लोग उन फैक्ट्रियों के सामने जा कर प्रदर्शन नहीं करते, जिनके जल से वास्तव में नदियां प्रदूषित हो रही हैं। अब जो हड्डियां लकड़ी से नहीं जलती थीं, उन्हें इलेक्ट्रिक फर्नेस में जलाया जा रहा है। नदी हमारी मां है, हमारा रिश्ता उससे कायम नहीं रहने दिया जा रहा है। उसे दूषित कर रहे हैं, उद्योग और सीवर जो आधुनिक नगरीय प्रणाली की देन हैं। हमारी पर्यावरणीय व्यवस्था को नष्ट करके अब हमें वे लोग उपदेश देने निकले हैं, जो स्वयं हमारी अति प्राचीन आधुनिक व्यवस्था को आज तक समझ नहीं पाये। उन्हें यह समझना चाहिए कि हजारों साल से इंसान झख नहीं मार रहा था। उसने कोई व्यवस्था बनाई तो उसकी कोई न कोई तो वजह होगी। नदी को समझे बिना नदी की सफाई हो रही है।
दरअसल गंगा में तो गंगा का पानी मात्र पांच फीसदी है। 95 फीसदी को हरिद्वार से नहरों के जरिए खेत सींचने के लिए मोड़ दिया जाता है। ठीक ऐसा ही गंगा की सहायक नदियों के साथ भी है। यमुना के पानी को लेकर यूपी और हरियाणा की जंग अभी तक जारी है। गंगा के पानी को सिंचाई के लिए इस्तेमाल ही करना है तो जब गंगा विकराल रूप लेती है, तब इसके पानी को स्टोर करने का इंतजाम करो। उससे खेत सींचो। कौन रोकता है, लेकिन गंगा का पूरा पानी ही सोख लो यह कौन सा तरीका है, लेकिन यह तरीका है और यही गंगा के प्रदूषण का कारण भी है। आंदोलन गंगा के पानी के लिए होना चाहिए, गंगा के प्रवाह के लिए होना चाहिए, प्रदूषण मुक्ति पर पहले भी तकरीबन एक हजार करोड़ खर्च हो चुके हैं।

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