- 17 Posts
- 35 Comments
इस देश में वोट बिकते हैं। इसे खरीदने के कई तरीके हैं। जिन्हें तरीका क्या कहें, हथकंडा कह सकते हैं। नोट से भी वोट खरीदा जाता है, और दारू की बोतल और पाउच से भी। सरकारी तौर पर चुनाव से कुछ महीने पहले कुछ फौरी राहतें भी इसके तहत आती हैं। चुनाव जीतने का दूसरा अस्त्र है बाहुबल। यह भी वोट खरीदने जैसा है, क्योंकि यह बाहुबल भी तो खरीदा हुआ ही होता है। सीधे वोट की खरीद-फरोख्त में वोट बेचने वाले को सीधे होता है और बाहुबल का फायदा सीमित गुंडों तक सीमित रहता है। यह सारे हथकंडे पुराने हैं। यूं कहें कि कांग्र्रेस जनित ही हैं। पहले लोकसभा चुनाव में ही सारे हथकंडे अपना लिए गये थे। भला हो बहुजन समाज पार्टी का, कम से कम उसने एक ऐसे तबके को वोट का मायने तो बताया, जिसे राजनैतिक दल अपने थोक वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते आये थे, यह बात दीगर है कि बसपा भी उनका ठीक वैसा ही इस्तेमाल कर रही है, जैसा पहले के सत्ताधीश करते रहे।
अब बात करते हैं घोटाले की। घोटाले दर घोटाले हो रहे हैं। घोटाला करने वाले कह रहे हैं कि उनके पास इकन्नी भी निकल जाये तो वह मूंछ मुड़ा देंगे। या तो जनाब इतने फन्ने खां है कि किसी स्विस खाते में रकम ठिकाने लगा चुके हैं, या फिर जो मेरा आकलन है, रकम वह उस जगह पहुंचा चुके हैं, जहां के लिए और जिसके इशारे पर पूरा घपला-घोटाला किया गया। जाहिर है या तो बहुत वफादार हैं कि जान चली जाये, लेकिन जुबान नहीं खोलेंगे, या फिर उन्हें जुबान खुलने पर जान चले जाने का भय है। ठीक वैसे जैसे इमरजेंसी के दौरान रुस्तम सोहराब नागरवाला का हाल हुआ। कई और ऐसे ही मामलों की भेंट चढ़े।
1998 में भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग या एनडीए) सत्ता में आया और छह साल के शासनकाल में उसने कई उल्लेखनीय कार्य किये, जिसके तहत भ्रष्टाचार की जननी कई कतारे खत्म हो गईं, यथा गैस सिलेंडरों, सिम कार्ड, टेलीफोन कनेक्शन, डीजल, केरोसीन (बिना सब्सीडी वाले), खाद व बीज की प्रचुर उपलब्धता से इनकी कालाबाजारी करने वालों का धंधा चौपट हो गया। आम आदमी के हित के काम शुरू हुए। स्वयं सहायता समूह का उद्भव ग्र्राम्य व महिला सबलता का आधार बन रहा था।
2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी सरकार को पूरा विश्वास था कि काम के दम पर वह फिर सत्ता में वापस आयेंगे। लोग काम को वोट करेंगे। ऐसा नहीं हुआ। जिन मतदाताओं को राजग को वोट दिया था, प्रचुर मात्रा में दिया था, वे नतीजे आने के बाद हतप्रभ थे। किसी तरह से कांग्र्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए या संप्रग) सत्तासीन हुआ।
2009 के चुनाव के पहले जैसे हालात थे, उन्हें देखने के बाद जो व्यक्ति तीन-तीन ज्ञानेंद्रियों से वंचित हो कर अंधा, गूंगा व बहरा होगा, वह भी नहीं मान सकता था कि कांग्र्रेस को इतनी सीटें मिलेंगी, लेकिन मिलीं। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे लोग चुनाव जीते, जिनके बारे में यह तय था कि वह कभी नहीं जीत सकते। यह जीत क्या वास्तव में उस जनता के वोट की जीत थी। क्या कांग्र्रेस ने कोई ऐसा काम बीती सरकार में किया था, जिससे उसे वोट मिलता। उसकी सबसे महत्वाकांक्षी योजना नरेगा तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी थी। वनाधिकार कानून का सत्यानाश हो चुका था और घरेलू हिंसा कानून ऐसा घुमावदार बना था कि उसका लाभ पाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, यह तो जो इस कानून के फेरे में फंसता है, वही जानता है। फिर भी कांग्र्रेस जीती, कांग्र्रेस की जीत का राज इन्हीं घोटालों में है। कांग्र्रेस ठीक वैसे ही जीती, जैसे पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या के बाद कांग्र्रेस सत्ता में वापस आयी थी। हालांकि बाद में जनता ने पुरजोर विरोध का प्रदर्शन उसे 1977 के आम चुनाव में सत्ता से बाहर करके किया था। जिन्हें आपातकाल के दिन याद हैं, वह जानते होंगे कि क्या कुछ नहीं हुआ था, उस दौरान।
अब यह समझ से परे है कि जहां भी भाजपा की सरकारें बनीं, वहां जनता उसे बार-बार चुन रही है, तो एनडीए को क्यों नहीं चुना। दरअसल जो जनता का वोट था, वह तो एनडीए के ही पक्ष में था, जिसकी कीमत लग गई थी, वह इस सरकार के, जो अब चल रही है। 2004 में जब कांग्र्रेस सत्ता में आयी थी, तब उस पर वामदलों का अंकुश था। कई अमंगलकारी नीतियां वह लागू नहीं कर पायी। दूसरी बार यह अंकुश हटा तो यह मतवाले हाथी की तरह से देश को रौंदने लगी। कृपया मेरी इस बात से वामदलों को दूध का धोया न मान लें। उन्होंने केरल व पश्चिम बंगाल में जो किया है, वह सबके सामने है। त्रिपुरा भी इन्हीं के कब्जे में है और अशांत है। इनके शासित प्रदेशों में सर्वाधिक आत्महत्यायें हो रही हैं।
अब दोबारा सत्ता में आने के लिए ज्यादा धन चाहिए, क्योंकि बीते चुनाव से हालात ज्यादा खराब हैं। ज्यादा धन के लिए ज्यादा घोटालों की जरूरत है। सो ज्यादा घोटाले हो रहे हैं, होंगे। चमड़ी ज्यादा मोटी हो चुकी है। अब घोटालों के मायने ही क्या रह गये हैं। घोटालों की जड़ कांग्र्रेस है। यूनियन कारबाइड के प्रमुख एंडरसन को क्लीन चिट देने वाली कांग्र्रेस का चेहरा कितना गंदा है, उसके चेहरे पर कई यूनियन कारबाइड की सेलों में डालने जाने वाली कार्बन का राडों की कालिख कम पड़ जायेगी। कम पड़ जायेगा झारखंड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की खानों का कोयला।
एंडरसन की बात चली तो समाजवादी विचारक रघु ठाकुर से हालिया बातचीत याद हो आई। जब चर्चा चली तो उन्होंने याद दिलाया कि यूनियन कारबाइड की घटना के बाद जो चुनाव हुए उसमें कांग्र्रेस भारी अंतर से चुनाव जीती थी। तब मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह थे। उन्होंने पीडि़तों को राशन मुफ्त कर दिया था। इस मुफ्त राशन पर पीडि़तों ने अपने वोट अपने सगे-संबंधियों की मौत भूल कर कुर्बान कर दिये थे। इस बात से एक और जरूरत समझ में आती है कि बदलाव लाने के लिए जन आंदोलन जिन्दा रखने की जरूरत है। जरूरत है जनता को उसके साथ हो रहे धोखे को याद दिलाते हुए, उसे जागरूक रखने की और उसके गुस्से की चिंगारी को शोले में तब्दील करने के लिए उस पवन प्रवाह की, जो लंका दहन के समय हनुमान जी ने उत्पन्न किया था। हरि प्रेरित तेही अवसर मरुत चले उनचास। चिंगारी को बोरसी में दबा के रखो, मौका आने पर उसे दहका दो। लहका दो। भ्रष्टाचार के इस साम्राज्य में आग लगा दो। आपके हाथ में मशाल होनी चाहिए। यह मशाल है आपका वोट। बदलाव चाहिए तो बिको नहीं, डिगो नहीं।
Read Comments