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तुरुप का इक्का हैं मुरलीधर राव

अभिव्यक्ति
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भारतीय जनता पार्टी के नवनिर्वाचित अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने पत्ते खोल दिये हैं। अब एक बड़ी टीम सामने है, जिसमें युवा भी हैं और प्रौढ़ भी। इसमें छुपी हैं भाजपा की उम्मीद। किसे किस उम्मीद के साथ कहां रखा गया है, इस दृष्टिपात आवश्यक है। टीम से साफ है कि भाजपा जल्दी में नहीं है, लेकिन रफ्तार तेज करने की कवायद साफ नजर आ रही है। टीम में संतुलन-असंतुलन की चर्चा भी हो रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और आडवाणी की पसंद-नापसंद भी मुद्दे के तौर पर सामने है। ताश के खेल में होता है तुरुप यानी ट्रंप, तुरुप में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होता है तुरुप का इक्का। यानी ट्रंप का ट्रंप। गडकरी की टीम में कौन कहां से आया, क्यों लाया गया, कहां है निगाह, कहां है निशाना, इसका विश्लेषण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ विचार प्रवाह के संगठनों की स्थापना से लेकर आज तक के बदलाव पर नजर डालने के बाद ही किया जा सकता है।
संघ विचार प्रवाह के संगठनों की कमान शुरुआती दौर में तपे-तपाये प्रचारकों को ही सौंपी जाती रही है। चाहे वह संघ विचार प्रवाह का पहला संगठन विद्यार्थी परिषद हो या फिर जनसंघ, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय किसान संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, दुर्गा वाहिनी, बजरंग दल, विद्या भारती, इतिहास संकलन समिति, स्वदेशी जागरण मंच और ताजा संगठन सक्षम। भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी संघ के शीर्ष प्रचारकों में से एक थे। विश्व हिन्दू परिषद की कमान संभालने वाले अशोक सिंहल संघ के प्रचारक ही हैं और संघ के शीर्ष पदाधिकारी मदन दास देवी लंबे समय तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय संगठन मंत्री रहे। विद्या भारती की नींव रखने वाले स्व. कृष्ण चंद्र गांधी संघ के प्रचारक थे। हाल ही में विशेष आवश्यकता वाले (निःशक्त) लोगों के लिए गठित संगठन सक्षम की कमान डा. कमलेश पांडेय को सौंपी गयी है, वे भी तकरीबन बीस साल से ज्यादा वक्त से संघ के विविध संगठनों में बतौर प्रचारक काम कर रहे हैं।
निरंतर हल्ला होता है कि संघ का शिकंजा कसा, संघ ने ऐसा किया, संघ ने भाजपा पर डंडा चलाया। संघ आखिर ऐसा करता क्या है जो भाजपा उसके डंडे के अर्दब में आ जाती है? संघ का काम क्या है? क्या संघ दुकान चलाता है? संघ कोई आतंकी संगठन है, जिससे भाजपा डर जाती है? नहीं, संघ व्यक्ति निर्माण करता है। संघ ऐसे समर्पित और राष्ट्रभक्त कार्यकर्त्ता तैयार करता है, जो बिना किसी लिप्सा के, लालच के, कहीं भी जा कर कार्य करने को तैयार रहते हैं। किसी भी संगठन को चलाने के लिए ऐसे समर्पित कार्यकर्ता किसे नहीं चाहिये। भाजपा को भी चाहिए और अन्यान्य संगठनों को भी। खबरों से लगता है कि संघ केवल राम मंदिर, भाजपा के जरिये राजनैतिक सत्ता हासिल करने और पाकिस्तान-मुसलमान विरोध, धर्मांतरण तक सीमित है। चाहे भुज और उत्तराखंड का भूकंप हो या फिर सुनामी, जिन्हें अस्सी के दशक की आंध्र प्रदेश के तूफान की याद हो वे उस घटनाचक्र को भी याद करें, जब ये सहायता एजेंसियां वहां घुसने से कतरा रही थीं, वहां भी सबसे आगे, अगली कतार में काम करता कौन मिला वही नेकर पहने लोग, जिनके बारे में एक धारणा गढ़ दी गई है कि ये तो सांप्रदायिक हैं। वहां सहायता करने से पहले उन्होंने किसी से यह नहीं पूछा कि तुम हो कौन हिन्दू या मुसलमान। बिहार की बाढ़ में भी उनके सेवा कार्य व्यवस्थित चले। घनघोर जंगल और पहाड़ों में संघ के ये जीवनदानी ही ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण के कुचक्र से लड़ रहे हैं। वहां कोई कांग्रेसी इमदाद नहीं जाती और न ही कामरेड पहुंचते हैं। जो कथित कामरेड पहुंचते हैं वे तो आजीविका के रूप में बंदूक थमा देते हैं, वसूलों लेवी और मौज करो। उनके इन कार्यों की तरफ झांकने की न तो मीडिया को फुर्सत है और न ही आरोप मढ़ने वालों को। चित्रकूट का नक्शा बदलने और उत्तर प्रदेश की थारू जनजाति के उत्थान का बीड़ा उठाने वाले नानाजी देशमुख ने तो तब राजनीति छोड़ी जब वे शिखर पर थे। संघ ने लोगों को जीने का मकसद बताने का काम किया है। उसका निःस्वार्थ भाव ही वह डंडा है, जिससे सब डरते हैं।
अब जरा भाजपा की बात करें। गडकरी के अध्यक्ष पद पर मनोनयन के पहले से लेकर निर्वाचन तक भाजपा को संघ के प्रचारकों के हाथ में सौंपने की बात को लेकर बतंगड़ बना, लेकिन भारतीय जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी के सफर में संघ के प्रचारकों की भूमिका की इसमें चर्चा कम रही। संघ के प्रचारक न होते तो क्या भारतीय जन संघ 1970 तक बड़े राष्ट्रीय राजनैतिक विकल्प के रूप में उभरता? बीते दिनों बड़े व्यक्तित्वों के सामने संघ का प्रभाव कम होना ही कहीं पतन की वजह तो नहीं? इन सवालों के जवाब उस व्यवस्था में निहित हैं, जिसके तहत भारतीय जन संघ का गठन हुआ। भारतीय जन संघ की स्थापना डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने की। उस जनसंघ में उनके साथ कौन लोग थे, किन्हें संघ ने सेकेंड कमान दी, इस पर दृष्टि डालें, वे थे पं. दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नाना जी देशमुख, कुशाभाऊ ठाकरे। ये लोग कौन थे? ये सभी संघ के प्रचारक थे। ये तो नाम बड़े हैं, जो चर्चा में रहे। तमाम अर्चित लोग संघ से जनसंघ में भेजे गये और उन्होंने जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के बाद जनता पार्टी और फिर भाजपा की स्थापना के बाद भाजपा में काम किया। गुजरात के प्रिय मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इसी प्रचारक परंपरा के ही संवाहक हैं। उत्तर प्रदेश भाजपा में कलराज मिश्र और विनय कटियार भी तो संघ के प्रचारक ही हैं। भाजपा के संगठन महामंत्री संघ से ही आते रहे हैं। तकरीबन 1985 के बाद, खासतौर से नानाजी देशमुख के संन्यास के बाद हालात बदले और केवल संगठन महामंत्री (पहले मंत्री, क्योंकि तब संघ विचार प्रवाह के संगठन में केवल एक ही महामंत्री का पद हुआ करता था।) ही संघ से आने लगे। यह व्यवस्था विभाग संगठन मंत्री तक जा पहुंची, जो केवल पहले प्रदेश संगठन मंत्री तक सीमित थी। तब चूंकि अटल जी का व्यक्तित्व अपने पूरे तेज के साथ प्रकट हो चुका था, इसलिए इस पर चर्चा कम हुई। हां, यह अवश्य हुआ कि इन संगठन मंत्रियों का पल्ला कमजोर पड़ता चला गया।
परिणाम सामने है कि पार्टी का संगठनात्मक ढांचा चरमराने लगा और घर के बर्तनों के बजने की आवाज चौराहे तक सुनाई देने लगी। अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग कलरव न बन कर कोलाहल में तब्दील हो गया। अब भाजपा में एक ऐसे युवा चेहरे की तलाश शुरू हुई, जो ओजस्वी हो और हिन्दी-अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर पकड़ रखता हो और खासतौर से आर्थिक मामलों को लेकर उसकी दृष्टि स्पष्ट हो। गडकरी की तलाश के पहले ही संघ ने यह खोज पूरी कर ली, स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मुरलीधर राव के रूप में। उनको तत्काल पद से मुक्त कर दिया गया। तब कोई यह समझ नहीं पाया कि आखिर उन्हें क्या दायित्व दिया जाने वाला है। उन्हें दिल्ली में स्थिर रहने का संकेत कर दिया गया। यह अलग बात है कि इस बीच वे स्वदेशी जागरण मंच की सेकेंड लाइन को माजते रहे, कार्यक्रमों में शिरकत करते रहे। जब टीम गडकरी की घोषणा हुई तो संघ ने भाजपा में अपने इस तुरुप के इक्के को शामिल करा दिया। वे राष्ट्रीय सचिव बनाये गये हैं। संगठन को उनसे बड़ी आशाएं हैं। ठीक राव की तरह वैचारिक मोर्चा संभालने के लिए इस टीम में एक और नाम शामिल है, वे हैं पांचजन्य के पूर्व संपादक तरुण विजय। उन्हें भी तकरीबन एक साल पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य के संपादक पद से ठीक राव की तरह ही मुक्त किया गया था। इन दोनों लोगों से मैं मिल चुका हूं। इन्हें सुन चुका हूं, जिन्होंने अभी इन्हें नहीं सुना है, वे जल्द ही सार्वजिनक मंच पर सुनेंगे। अब तक इनकी सामाजिक और आर्थिक चिन्ताएं ही सामने आती रहीं, अब ये राजनैतिक बातें भी करेंगे। टीम में रामलाल, सौदान सिंह व रामप्यारे पांडेय जैसे तपे-तपाये संघ के प्रचारक पहले से मौजूद हैं। अर्जुन मुंडा को राष्ट्रीय महासचिव बना कर झारखंड की भावी राजनीति के संकेत भाजपा ने दिये हैं। उत्तर प्रदेश के बारे में भी ऐसा ही कुछ नजर आ रहा है। महिला सेलेब्रेटी टीम को संभालने के लिए दीदी के नाम से जानी जाने वाली करुणा शुक्ला मौजूद हैं, तो डा. मुरली मनोहर जोशी, बाल आप्टे, वेंकैया नायडू केंद्रीय संसदीय बोर्ड में यानी अब राष्ट्रीय नेतृत्व में संघ की भाषा बोलने वालों की खासी तादात है। साध्वी निरंजना ज्योति को शामिल कर पार्टी ने उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा की भरपाई की कोशिश की है। वे अखिल भारतीय साध्वी शक्ति परिषद की सचिव भी हैं। उन्होंने 2007 में हमीरपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर चुनाव भी लड़ा है।
बदले हालात में संगठन महामंत्रियों की उपेक्षा के दौर का भी समापन होगा, ऐसी उम्मीद की जा रही है। अब टीम गडकरी क्या कमाल दिखाती है, संघ का यह प्रयोग सफल होता है या विफल यह समय ही तय करेगा। फिलहाल भीषण भाषण करने वालों की छुट्टी कर दी गई है, यह तो साफ नजर आ रहा है। खासतौर से कुछ वे लोग इस टीम में नजर नहीं आ रहे हैं, जो प्रायः टीवी चैनलों पर नजर आते थे, सही कहें तो चैनलों की टोली और उनका चोली-दामन का साथ था।

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