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शिक्षा

FOREST REVOLUTION THE LAST SOLUTION
FOREST REVOLUTION THE LAST SOLUTION
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इस लेख में बच्चों को कैसे शिक्षा दी जाए कि वो अवसाद ग्रस्त होकर प्राण न दें. आपसे अनुरोध है कि अपने महत्वपूर्ण कार्यों से थोड़ा समय निकाल कर पूरा पढ़ें एवं यदि सम्भव हो तो भविष्य में भारत की शिक्षा नीति बनाने तथा जन जागृति हेतु उपलब्ध माध्यमों से प्रसार करें।

शिक्षा

नन्ही नन्ही उंगलियां उठीं और मां की हथेली को पकड़ कर सुकून भरी नजरों से देखा फिर इत्मिनान से सो गई वो परी. धीरे धीरे कदमों को बढ़ाती वो संसार को नापने चली कुछ छोटे छोटे कदमों और बड़े बड़े इरादों के साथ आने पिता अमित की ओर चहकते चहकते।

इस उल्लास को जीती कब चौदह साल बीत गए पता ही न चला, पता तो तब चला जब उसके ये क़दम ठिठके आठ मंजिल ऊपर से नीचे को ओर।

हा दैव।।।।।
मां बाप का वो फूल बेजान होकर गिर पड़ा था जमीन पर।।।

वज्राघात हुआ माँ के हृदय पर, बाप के सपने औंधे मुंह जमीन पर पड़े थे। खून से सराबोर वो सुकुमार बदन जिस पर एक ख़रोंच का भी निशान न था। संज्ञा शून्य पिता कभी बेटी को देखता तो कभी विधाता को।।।।

कलम की कुचियों से तस्वीर को जीवंत करने वाली अद्भुत गुण से भरी लाडली खुद निर्जीव हो गयी थी।।।
किसको दोष देता वो बाप बस आह भरकर माँ को तस्सली देने लगा कि शायद ये हमारी नियति थी।।।।।

पर नियति और हत्या में ये फर्क होता है कि समय के बाद सब उजागर होने लगता है, और कहानी सामने आने लगती है इस क्रूर शिक्षा व्यवस्था की।
हाँ, सी. एम. एस. गोमती नगर में कक्षा नौ में पढ़ने वाली अस्मि जिंदगी से हार ना मानती अगर उसके कोमल अंतर्मन पर इस कॉर्पोरेट शिक्षा और उसमें पढ़ाने वाले शिक्षकों द्वारा मानसिक अघात न हुआ होता। आखिर किसी भी बच्चे के सामने माता पिता सर्वोच्च आदर्श होते हैं, उनका सिर गर्व से उठाने वाली कैसे झुके सिर को बर्दाश्त करती, कैसे सहन कर पाती स्वाभिमान पर चोट…….

12 फर. 19 को दोपहर ढाई बजे वो चुपचाप माँ के साथ घर लौट आयी, खाना भी न खाया, गुमसुम सी न जाने क्या सोंचती रही। बिटिया का भविष्य कैसे संभाले इस पर चर्चा करते माता पिता की तंद्रा टूटी पौने तीन बजे गार्ड की एक चीख से। आशंकित से भागे नीचे की तरफ।।।

लेकिन- उफ, जड़ शून्य।

ये तो उनके कलेजे का टुकड़ा थी।।।।।

कोमल कलाई मुड़ी, औंधे मुंह पड़ी, बेजान नब्ज।।। बदहवास दौड़ा अमित अपने सपने को गोद मे उठा कर दुनिया के हर डॉक्टर के पास कि कोई तो इसके मुँह से मुझे पापा बुलवा दे।।। माँ अवाक हो चुकी थी जिस सपने को वो क्षण भर पहले बुन रही थी ऐसे भला कैसे टूट सकता है। मेरा स्वाभिमान, जिसकी पेंटिंग से सारा स्कूल सजा रहता था उसके कोमल मन को टीचर ने इतना आघात कैसे पहुँचा दिया। अब ये बेजान उंगलियां किसी को जीवंत कैसे करेंगी।।।।।।।

शिक्षा की ये क्रूर व्यवस्था कितने जीवन का बलिदान मांगेगी???

बच्चों के कोमल मन और उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को मारते ये कॉरपोरेट शिक्षा के व्यापारी अपनी महत्वाकांक्षा के लिए हर हद से गुज़र जाते हैं। बच्चे को इस कदर प्रताड़ित करते हैं कि वो अपने मन मे हीन होता जाता है. वो टीचर, सहपाठी और स्कूल के परिवेश को अपना सर्वस्व समझ लेता है. एक बनावटी साँचे में सिमटता हुआ वो समाज और परिवार से दूर हो जाता है। वो अपना दुख घर मे किसी से व्यक्त नही कर पाता, समाज के बीच झिझकता शर्माता है और स्कूल में गुरु शिष्य के रिश्ते में अपनत्व न होने की वजह से जलील होने के डर से खुद घुटता जाता है।। जिसकी दुखद परिणति में उसके जीवन का अंत होता है।।
उफ्फ कैसा भय उस कोमल मन के भीतर पैवस्त होता गया कि मात्र एक लैबोरेट्री मैन्युअल न ला पाने की वजह से पिता के प्लेन एक्सीडेंट का बहाना और फिर ये बात एक दिन बाद पेरेंट्स मीटिंग में जाहिर होने से आत्मग्लानि। क्या मनःस्थिति रही होगी उस बच्ची की, जो इतने छोटे से कारण पर अपनी जान देने का फैसला कर बैठी। वो कब तक मानसिक द्वन्द से जूझी होगी. पिता के सामने कैसे जायेगी क्योंकि उसने झूठ बोला, वो सहपाठियों के सामने कैसे खडी होगी, वो अपने टीचर्स का कैसे सामना कर पाएगी??? आदि आदि ….. उसके मनः द्वन्द में जीत आत्महंत भाव की हुई और इस घटना के मात्र एक दिन बाद…….

आखिर क्या है शिक्षा

इस शिक्षा का क्या मूल्य जो विद्यार्थी के खून से पूरी हो?………

खुद को सबसे ऊँचा ले जाने की चाह- चाहे वो स्कूलों की हो, चाहे वो अभिभावको की हो या चाहे राजनेताओं की. इसके लिए बच्चों के कोमल मन की बलिवेदी होती है और हम लोगों की महत्वाकांक्षाओं की आपूर्ति। आज के बाल्य मन पर किस कदर का बोझ है क्या हम समझ पा रहे हैं?????

ये कैसी शिक्षा और समाज का निर्माण कर रहे हैं हम मानसिक दिवालिये लोग।।।

जितने भी आंदोलन हों हम बच्चों को सबसे आगे रैली में मोमबत्ती पकड़ा कर खड़ा कर देते हैं, स्कूल में नेताओं के भाषण से पहले बच्चों से कड़ी धूप, बारिश या ठंड में स्तुति गान करवाते हैं, बिना किसी समझ के उनसे ताली बजवाते और गगनशोर नारे चिल्लवाते हैं, रिएलिटी शोज़ में बच्चों का भविष्य फूहड़ गाने और नाच पर निर्भर होता है… शनिवार और रविवार के अखबार, टेलीविज़न और रेडियो अब फिल्मों और अश्लील मनोरंजन से रंग गए हैं. चंद सालों पहले हम हफ्ते भर इंतज़ार करते थे बच्चों की कहानी, नाटक और कॉमिक्स की दुनिया का. संयुक्त परवरिश  से दूर ले चले हैं एक नीरस, डरावने और बालमन को समय से पहले परिपक्व होते असभ्य अमानवीय समाज की ओर।

एन.सी.आर.टी. के शिक्षा शोध का मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ कि उसने आज के आधुनिक भारत को बनाया, समाज की विषमता को दूर करती ये व्यवस्था अपने सशक्त और नैतिक भारत के निर्माण में काफी हद तक सफल रही। लेकिन आज शिक्षा के सौदागरों के हाथों  हमारा बचपन पंगु होता जा रहा है।

पुरानी शिक्षा व्यवस्था में बदलाव आया है। प्राचीन शिक्षा व्यवस्था जिसे आश्रम प्रणाली कहते थे, में विद्यार्थी भिक्षु होते थे। मांग या अनुदान से चलती थी व्यवस्था। उसके बाद इसका सरकारीकरण हुआ। तब शिक्षक बच्चों को पीटते भी थे मगर जुड़ाव इतना था कि अभिभावकत्व हावी होता था। आत्महत्या जैसी बातें सामने नही आती थी। आज व्यवसायीकरण ने शिक्षा को हाशिये में डाल दिया है। पत्थर की इमारतें खूबसूरत बना दी जाती हैं जिनकी गोद मे अप्रशिक्षित शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हैं। इमारतों और बनावटीपन पर खर्च ज्यादा किया जाता है और शिक्षकों पर कम। अनुशासन के नाम पर प्रताड़ना, भारी स्कूल बस्ते, लम्बे और उबाऊ क्लास और ऊपर से व्यवहारिक दूरियां। बच्चे नही रोबोट तैयार किये जा रहे हैं। तभी तो एक बच्चे की मौत के बाद संवेदनहीनता से उसके शिक्षक अपना फोन बंद कर लेते हैं। अपराधबोध दिखता है मगर जाहिर करने का नकारात्मक तरीका है। कहने को तो वैश्विक  शिक्षा प्रणाली बोझ, दबाव और दंड तीनो को खारिज करती है लेकिन शिक्षण संस्थानों के व्यावसायिक और संवेदनहीन मालिक इससे कोसो दूर हैं। बच्चों के मातापिता भी शिक्षा व्यवस्था से दूर खबसूरत इमारतों वाले स्कूल में इसलिए बच्चों का दाखिला करवा देते है क्योंकि उनकी नज़र में  ये उनके सामाजिक और आर्थिक उत्थान से मेल खाता है। आभासी दुनिया का ऐसा खांका खींच दिया जाता है की यदि वो अपने बच्चों का इस स्कूल में एडमिशन न करा पाए तो ये बच्चे के साथ अन्याय कर रहे हैं या उनके भविष्य के साथ खिलवाड़।

ये एक नए किस्म की शिक्षा का विस्तार कर रहे हैं, एक नए किस्म की जाति व्यवस्था को जन्म दे रहे हैं, एक नए किस्म की विषमता तैयार कर रहे हैं अमीर और गरीब की।।।। आह, शिक्षक और शिक्षा का पतन हो रहा है।।।।।।।

सरकारी स्कूलों की पढ़ाई को निकृष्ट साबित करके विश्व स्तर की पढ़ाई का ख्वाब दिखाते हैं. शायद किसी हद तक सच कह रहे हों क्योंकि भ्रस्टाचार की भेंट चढ़े सरकारी तंत्र भीतर से कितने खोखले हो चुके हैं, ये हम सब अच्छी तरह जानते हैं. बावजूद इन संकीर्णताओं के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे ही सिविल सर्विसेज, फौज, पुलिस, रेलवे और इन जैसी नौकरियों में अव्वल आते हैं।।।

कोई आश्चर्य नही की ये जटिल परिस्थितियों में सर्वोत्तम होते जाते हैं, मष्तिस्क और शरीर से पुष्ट होते हैं क्योंकि ये स्कूल पढ़ाई पर जोर नहीं देते बल्कि बच्चे यहां खुद आगे बढ़ने का जीवट रखते हैं. वो समाज और प्रकृति से शिक्षा प्राप्त करते हैं।

कैसी विडम्बना है कि हम शहरों में नौकरी करके अपने बच्चों को वैश्विक विद्यालयों में पढ़ा कर, सुरक्षित वातावरण में पढ़ाने के लिए लाखों रुपये खर्च करके उनके शरीर और मष्तिष्क को पंगु बनाते हैं। शायद ही हम लोगो के परिवारों में बच्चे एलर्जी, अस्थमा, थाइरॉइड, इत्यादि जैसी बीमारियों से बच पा रहे हों. हमारे बच्चों की बीमारियों से लड़ने की क्षमता खत्म होती जा रही है। ये ना केवल शारीरिक बल्कि मानसिक तौर पर भी बीमार कर रहे हैं, बच्चे जरा सी डाँट या थोड़ा सा अपमान भी बर्दाश्त करने की क्षमता खो रहे हैं, वो किताबी ज्ञान के अलावा सामाजिक ज्ञान से भी शून्य हो रहे हैं, किसी अनजान सड़क पर छोड़ दें और उनके पास मोबाइल न हो तो वो किसी का सहारा लेने में भी झिझकेंगे क्योंकि उनके भीतर समाज के प्रति भय है वो असमंजस की स्थिति में सही व्यक्ति और गलत व्यक्ति के मध्य भेद नही कर पाएंगे जिससे उनके साथ गलत होने की संभावना बढ़ जाएगी।

समाज की शिक्षा बहुत जरूरी है वरना एक उम्र के बाद जब उनके मार्गदर्शक अभिभावक नही होंगे तो वो गलत दलदल में फंस सकते हैं और अपने जीवन को बर्बाद कर सकते हैं।

चूंकि राष्ट्र का भविष्य उसकी बाल्य पीढ़ी पर टिकता है. शिक्षा सबसे जटिल और सभी मुद्दों से अत्यधिक महत्वपूर्ण विषय है इसलिए वर्तमान राजनीति को अपनी प्राथमिकता को सिरे से बदलना पड़ेगा। मानसिक और शारीरिक अस्वस्थ नागरिकों के दम पर राष्ट्र आगे नही बढ़ पायेगा। हमारा भारत आज तक की सबसे प्राचीन सभ्यता को आगे ले जा रहा है तो सिर्फ अपनी शिक्षा के दम पर वरना हमसे पुरानी सभ्यताएं खत्म हो चुकीं और हमसे नई सभ्यताएं आज अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं।

विश्व की किसी भी शिक्षा प्रणाली में हमारे भारत जैसी संस्कृति नही है जिसमे सुबह इस श्लोक से हम भारतीयों का दिन शुरू होता हो:-

।। ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थात – “सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।” … सारे विश्व में शांति हो…..

मैं विश्व के हर व्यक्ति को चुनौती देता हूँ कि ये बात भारत के अलावा किसी भी धर्म, संस्कृति अथवा सभ्यता से उद्धत हो तो दिखाए ?? ये हिंदुत्व भी नहीं है बल्कि भारतीयता है, हम डेढ़ अरब लोगों की रगों में विद्यमान शिक्षा है यह। हम कैसे किसी और की शिक्षा व्यवस्था को उत्कृष्ट मान सकते हैं?

वैश्विक शिक्षा संसाधनों में हिस्सा छिनना सिखाती है जबकि भारतीय शिक्षा संसाधनों को प्रकृति के समन्वय के साथ उत्पन्न करना सिखाती है.

भारत एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था और विश्व के अग्रेता के रूप में रूप में प्राचीन शिक्षा के दम पर रहा था और संभवतः आगे भी अपने प्राकृतिक स्वरूप को पा लेगा।

लेकिन इसके साथ ही हमें मध्यकालीन अमानवीय शिक्षा से भी बचना होगा। हमें उस मूर्ख शिक्षण व्यवस्था को खारिज रखना होगा जो जाति और वर्ण व्यवस्था में बंटी थी, इन मूर्खों की वजह से ही बच्चे वेद, गीता जैसे वैज्ञानिक ग्रंथों को मंदिर में सजा कर पूजा करने लगे, इसके मर्म को चौपट कर बैठे। हमें इस शिक्षा को खारिज करना होगा जिसमें एक व्यक्ति के हाथ से दूसरा इंसान पानी नही पी सकता, एक जनता के नुमांइदे द्वारा  बंगला खाली करने पर दूसरा नुमाइंदा बंगले का शुद्धिकरण करवाता है। गाय पर पलती अर्थव्यस्था को भुला कर इंसान द्वारा इंसान का कत्ल करवाती है।

हमें उस शिक्षा को भी खारिज करना होगा जो बच्चों के सिर पर टोपी पहना कर जान देने भेज देती है, वो मासूम बच्चे जो खेलने की उम्र में जिहाद, काफिर, जन्नत के नाम पर अकाल मृत्यु के लिए उतावले कर दिए जाते हैं। ये बच्चे कभी नही समझ पाते कि उनकी जान जाने से उन नेताओं का भला कर बैठे जिनकी सात पुश्तें अब बैठ के रोटी खाएंगी।

सारी कहानी सिर्फ संख्याबल की अर्थव्यवस्था का है। जिसकी जनसंख्या ज्यादा होगी वो राज करेगा।

अगर ऐसा सच होता तो महान नेताओं, महान राजाओं और कथित भगवानों के वंशज हम लोगों के बीच होते। लेकिन तीन पीढ़ियों से पहले की हकीकत शायद ही कोई जानता हो। हिन्दू मुसलमान में बंटे लोग क्या शुरू से यही थे?

ये अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान की शिक्षा का ही कसूर है कि वो अपनी जड़ों को काट चुके हैं, विश्व की सबसे ऊंची बौद्ध मूर्ति बनाने वाले अद्भुत अफगानी पूर्वजों की धरोहर को उनके अपने बच्चे ही तालिबानी बनकर नेस्तनाबूद कर बैठे और आज पर्यटन के अभाव में दाने दाने को मोहताज हो गए।
पाकिस्तान में आपने पूर्वजों की सिंधु घाटी सभ्यता को भुलाकर जिस नई मदरसा पढ़ाई में बच्चे फंसे वही आज नए आतंक की परिभाषा पेशावर में पढ़ रहे मासूम बच्चों की जान लेकर लिखने लगे।

पुलवामा अटैक या उसकी प्रतिक्रिया में बालाकोट कैंपो में हमला ये कोई प्रतिकार नही था बल्कि आतंक की शिक्षा पर नीति और मानवता की शिक्षा स्थापित करती सैन्य घात थी. लेकिन उसके बाद तो राजनीतिज्ञों और मीडिया ने तो मानो परमाणु युद्ध के मुहाने पर इस महाद्वीप को खड़ा कर दिया। ये एक आभासी शिक्षा का परिणाम थी. वास्तविक शिक्षा से कोसों दूर ये सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, टेली मीडिया  में चीखते या वोट के लिए जज्बातों में उबाल देते इनमे से कोई एक आदमी भी अस्सी किलो का असलहा और बारूद पीठ में लादकर पांच किलोमीटर धूप में चल सकता है?? दूसरों की क्या बात करें, मैं लिखने वाला और आप पढ़ने वालों के भीतर भी इतनी ताकत नहीं है।

अब यहां पर वास्तविक शिक्षा प्राप्त करने वाला ही इसकी विभीषिका को समझ सकता है।
आज की परिस्थिति में होने वाला युद्ध कब परमाणवीय विनाश मैं तब्दील हो जाये इसकी कल्पना बहुत आसान है, लेकिन क्या कभी सोंचा है कि अपने जिगर के टुकड़ों को अपनी आंखों के सामने भाप में बदलते देख सकोगे?
अपने जीवन भर की कमाई दौलत से बने  घरों को जमींदोज होते देख सकोगे, क्या कई सौ मीलों तक बिना पानी, बिना खाने के जान बचाने के लिए दौड़ लगा सकोगे, क्या इस युद्ध के बाद सदियों तक परमाणवीय धूल से अवरूद्ध सूर्य रोशनी के अभाव में पड़ने वाली भीषण सर्दी और फसलों के बिना जीवन जीने के लिए तैयार हो? क्या ओजोन परत बर्बाद होने से चमड़ी में पड़ती धूप से होने वाले कैंसर से कोई बचाव है?

इसलिए हमें आभासी शिक्षा नही बल्कि यथार्थी शिक्षा की ओर बढ़ना है. हमारे भारत को विश्व शिक्षा की जरूरत नहीं बल्कि अपनी असली शिक्षा अर्थात प्राकृतिक शिक्षा की जरूरत है।
अब हमें बेहद मजबूत शिक्षा कानून की जरूरत है जिससे कोई भी खिलवाड़ न कर सके. ऐसी शिक्षा जिससे अगर हमारी आने वाली पीढ़ी ही न बच सके उस शिक्षा को जल्द से जल्द सशक्त कानून के दायरे में लाना होगा। शिक्षा को व्यवसाय बनाकर भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाले लोग मानवता का सर्वनाश करने पर तुले हुए हैं। ये वो अक्षम्य अपराध कर रहे हैं जिसके लिए ये अबोध भविष्य इनको कभी माफ नही कर सकेगा। गुरु व्यवसाय कैसे बन सकता है क्योंकि हमारा इतिहास गुरु को भगवान से भी ऊपर का दर्जा देता है। एक मां और गुरु ही अपने बच्चे की उन्नति पर निस्वार्थ सुखी होते हैं।

हमें एन.सी.आर.टी. की शिक्षा पद्धति में भारतीय प्राकृतिक शिक्षा का समावेश करना होगा। हमें प्रकृति विज्ञान को प्राकृतिक वातावरण के जरिये बच्चों को समझाना होगा. उनके शरीर को सुबह सूरज की किरणों से पोषित करना होगा कि हृष्ट पुष्ट रह सकें, उनके शरीर मे रोग निरोधन क्षमता विकसित हो सके, उनकी हड्डियां मजबूत रहें. उनके टाइम टेबल में प्राकतिक वातावरण में उन्मुक्त रहने को प्राथमिकता दी जाए जिससे वो फूल, पत्ती, जानवर, मानवों, पर्यावरण इत्यादि पर गहनता से अध्ययन और शोध कर सकें। वो प्रतिदिन दैनिन्दनी लिखने का अभ्यास करें और सारे दिन में हुई छोटी छोटी घटना के प्रभाव का आंकलन कर सकें। समाज और बचपन की उन्मुक्तता को एक शिक्षा के दायरे में सिखाया जाए और अपने बच्चों को आने वाली विषम परिस्थितियों के प्रति मजबूत बनाया जाए। जीवन जीने के हर आयाम से उनका परिचय कराया जाए जिससे वो किताबों के अलावा भी जीवनयापन के तरीके खोज सकें।
सरकार, शिक्षक एवं अभिभावक तीनों को भारत आगे ले जाने की जिम्मेदारी का निर्वहन करना होगा। सिर्फ हमारा ही राष्ट्र सारे विश्व मे ऐसा है जहाँ हर रिश्ते में भावनाओं, संवेदनाओं और प्रेम का अटूट बंधन है. इसलिए सरकार को जीविकोपार्जन और परिवार पर व्यतीत होने वाले समय को स्पष्ट विभक्त करना होगा, अभिभावकों को सप्ताह में कम से कम दो दिन बच्चों को व्यवहारिक और सामाजिक ज्ञान देने के लिए मुक्त करना होगा. ऐसा इसलिए भी जरूरी है क्योंकि शिक्षक के पास कई बच्चे होते हैं और वो प्रत्येक बच्चे पर बराबर निगरानी नही रख सकता। एन.सी.आर.टी. को अभिभावकों के जिम्मेदारियों पर भी शोध करके एक विस्तृत वार्षिक प्रोग्राम तैयार करना होगा।

किताबों से ज्यादा शिक्षा प्रकृति देती है। हममें से कोई भी ऐसा व्यक्ति नही है जो अपनी कक्षा की पढ़ाई याद रखे हो लेकिन वो बचपन से लेकर आज तक के सारे व्यवहारिक सबकों को याद रखे होगा और उन्हें दैनिक कार्यों में उपयोग कर रहा होगा।

इस आत्महत्या के लिए हम किसको दोष दें? बायो टीचर को दोष दें? क्लास टीचर को दोष दें, स्कूल प्रबंधन को दोष दें या खुद को दोष दें? डार्विन के सिद्धांत पर आधारित यह शिक्षा “सर्वश्रेष्ठ ही जियेगा” हम सब पर हावी है?
पर गया तो हमारा भविष्य न……………..

आज अस्मि जैसे हज़ारों बच्चे हमसे दूर हैं तो उसकी वजह सिर्फ ये शिक्षा व्यवस्था है जिसने उन बच्चों के भीतर छिपे अद्भुत गुणों की कद्र नही की, उनका तिरस्कार किया। अंकों के आधार पर छात्र के मस्तिष्क का मूल्यांकन करने वाली यह शिक्षा बच्चे के नैसर्गिक अविष्कारों की संभावनाओं को क्षीण कर देती है. अंतर्मुखी बच्चों को अवसाद से ग्रस्त कर देती है, बनिस्बत इसके की ये अंतर्मुखी बच्चे बहुत जुनूनी होते हैं और वयस्क होकर नए आयाम स्थापित करते हैं इसलिए इन पर विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है जिससे इनके स्वाभाविक गुण का विकास हो सके।।।
ध्यान रखें की जीवन का मूल्य सबसे बड़ा होता है………..

आओ हम सब मिलकर स्वस्थ, आध्यात्मिक और नैतिक भारत को नए युग मे ले चलें।।

वन क्रांति – जन क्रांति
FOREST REVOLUTION – THE LAST SOLUTION

राम सिंह यादव
(भारत)
yadav.rsingh@gmail.com
www.theforestrevolution.blogspot.com

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