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अपनों को पा लेने का संगीत

anujrajp
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हाल ही में एक खबर आई थी. बेंगलुरु के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस से. यहां एक छात्र ने डिप्रेशन में आकर आत्महत्या कर ली. इसके बाद पूरे कैंपस में डिप्रेशन के खिलाफ बेचैनी छाई रही. आखिरकार छात्रों ने मिलकर हल निकाला. और सोशल मीडिया पर आईआईएससी सर्वाइवर डायरीज़ नाम से एक ग्रुप बनाया और डिप्रेशन के खिलाफ जंग छेड़ दी.

 

डिप्रेशन के और भी तमाम मामले आपको याद होंगे. फिर वह डीएसपी का खुद को गोली मारना हो या दीपिका पादुकोण का खुलासा करना कि वह डिप्रेशन में थीं या फिर किसान का आत्महत्या करना. यह समस्या विश्वव्यापी है. इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हर साल 10 अक्टूबर को विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस के तौर पर मनाने की पहल की है. लेकिन कितने लोग यह बात जानते हैं. यूं तो 10 अक्टूबर भी बेहद सामान्य दिन है. कैलेंडर की तारीखें रोज बदलती हैं. हमारी जिंदगी भी तारीखों की तरह आगे बढ़ती रहती है. इन बदली तारीखों के साथ कुछ जिंदगियों में तारीखें थम जाती हैं, जो कभी नहीं बदलती. जिंदगियां न थमें, इसीलिए डब्ल्यूएचओ ने 1992 से यह ठोस शुरुआत की थी. और इस बार 10 अक्टूबर, 2019 को विश्व आत्महत्या निवारण दिवस के तौर पर मनाया जाएगा. कारण, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में हर 40 सेंकेड में एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है. डब्ल्यूएचओ के अनुसार देश में सबसे ज्यादा व्यक्ति अवसाद से, डिप्रेशन से पीड़ित हैं. और इसके मूल में चिंता है.

 

अब सवाल उठता है कि हम चिंता करते क्यों हैं? जबकि बचपन से पढ़ते आए हैं, “चिंता चिता समान है।” क्या यह चिंता अपने आप हो जाती है या हम करते हैं? जब भी हम स्थितियों-परिस्थितियों और घटनाओं का सही परिप्रेक्ष्य में आकलन नहीं कर पाते या फिर परिस्थितियां हमारे अनुकूल नहीं होतीं तो चिंता हावी होने लगती है. यह चिंता व्यक्ति को धीरे-धीरे खत्म करना शुरू कर देती है. अंदर से खोखला कर देती है. जब यह खोखलापन स्थायी हो जाता है, तो इसी को अवसाद, डिप्रेशन का नाम दे दिया जाता है. लेकिन हम इसे जीवन का हिस्सा मानकर आगे बढ़ते रहते हैं.

 

बहुत छोटा-सा उदाहरण है. जब भी हमें सर्दी-जुखाम जैसी सामान्य शारीरिक समस्याएं होती हैं, हम दवाई लेना नहीं भूलते। कभी मन उदास होता है, तब हम क्यों नहीं किसी डॉक्टर, सायकायट्रिस्ट या काउंसलर से मिलते हैं? हमारा मन पूरे शरीर को चलाता है और हम उसी मन को दुरुस्त करने की नहीं सोचते. हमारे दुख और खुशी का कारण मन ही है. इसीलिए मन का इलाज बहुत जरूरी है. यह मन ही है जो हताश-परेशान हो जाता है और जब इसे परेशानी से निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता, तब यही मन आत्महत्या की सोचने लगता है. एक सर्वे के अनुसार स्कूल जाने वाले बच्चों में हर तीसरा सामान्यतः आत्महत्या की सोचता है. हमारे आसपास बहुत से ऐसे मानसिक पीड़ित लोग हैं जिन्हें पहचानने और मदद की जरूरत है. विश्व भर में 10 से 19 साल के बच्चों में आत्महत्या की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा पाई जाती है. भारत में कॉरपोरेट जगत में कार्य करने वालों में 38 प्रतिशत व्यक्ति अवसाद से पीड़ित हैं. ये आंकड़े WHO के ही हैं. देश में जितने लोग सड़क हादसों में जान गंवा देते हैं, उससे ज्यादा हर साल लोग आत्महत्या कर लेते हैं. लगभग 1.5 लाख से ज्यादा लोग हर साल आत्महत्या कर लेते हैं. इस वर्ष अभी तक लगभग 50 लोग दिल्ली मेट्रो के आगे कूद कर जान देने के कोशिश कर चुके हैं या जान दे चुके हैं. ये हमारे-आपके ही आसपास के लोग थे, जो कभी किसी से अपनी ख़्वाहिशें पूरी न हो पाने का अपने दिल का दर्द कह नहीं पाए.

 

सोचिये हमारे आसपास कितने लोग पहले अपनी ख़्वाहिशों को दफन करते होंगे. उनके साथ-साथ सपने खत्म होते होंगे. फिर एक सपने की तरह खुद को ख़त्म कर देते होंगे. हम यह समझ भी नहीं पाते कि किसके दिल में कितना दर्द पल रहा है. पता है क्यों? क्योंकि हम व्यस्त हैं. आपमें से बहुत से लोगों ने पिछले दिनों आई फिल्म ड्रीम गर्ल देखी होगी. यह कहानी केवल ड्रीमगर्ल पाने की ख्वाहिश की नहीं हैं. यह कहानी है अकेलेपन की. कहानी है लोग क्या कहते हैं, उसके मुताबिक जीने की. कहानी खुद को खो देने की, पा लेने की. कहानी वास्तविक न रहने की, झूठी जिंदगी जीने की. अब सवाल उठता है कि वास्तविकता क्या है? वास्तविक है प्रकृति. हम प्रकृति को निहार सकते हैं. जैसे- मैं जब ये पंक्तियां लिख रहा हूं, बाहर बारिश हो रही है. मैंने अपने कमरे की खिड़की खोल दी है. अब मैं ठंडी हवा के साथ खिड़की से छनकर आती हल्की-हल्की बौछार को महसूस कर सकता हूं. मैं बहुत देर तक इस बारिश को देखते रहता हूं. इसकी बूंदों के स्पर्श को अपनी देह पर महसूस करने लगता हूं. अब मेरा मन भी भीग रहा है. बारिश से पौधों-पेड़ों के पत्ते धुल गए हैं. मैं देखता हूं दूर मुंडेर पर एक कबूतर अपने भीगे पंखों को फड़फड़ाकर सुखा रहा है. मैं यह भी देखता हूं कि मेरे सामने वाले घरों की बालकनियाँ वीरान हैं. किसी इंसान की चहलकदमी नहीं, बारिश के स्वागत को वहां कोई नहीं. न किसी ने बूंदों को छुआ, न देखा, और न ही उन्हें गले लगाया. अगर हम आसपास देख लें, आसपास के लोगों से बात कर लें, आसपास प्रकृति से कुछ सीख लें तो शायद हम जान पाएं कि सामने वाले के दिल में कितना दर्द है.

 

लेकिन मनुष्य को मशीन में बदलती यह आधुनिक संस्कृति हमें हमसे ही दूर करती जा रही है. हम सफलता की अंधी दौड़ में दौड़ते जा रहे हैं. सफल व्यक्ति अपना दर्द बयां करना कमजोरी समझता है. वह आत्महत्या का रास्ता चुन लेता है. वह न अपनी खुशी ही बाँट पाता है और न दुःख ही व्यक्त करने की हिम्मत जुटा पाता है. वह बस चला जा रहा है. भीड़ का हिस्सा बनकर दौड़ रहा है. इस दौड़ में मनुष्य केवल अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाला एक उपकरण भर रह जाता है. वह योगदान चाहे घर की अर्थव्यवस्था में हो या देश की अर्थव्यवस्था में. वह जीना भूल जाता है. केवल रह जाता है दबाव. पैसे कमाने का दबाव. ज्यादा से ज्यादा खर्च करने का दबाव. वह हंसता भी उतना है, जितना दूसरे इजाजत देते हैं. रो तो सकता ही नहीं. लोग कमजोर समझ लेंगे. वह लगातार फर्जी-फेक जिंदगी जीता जाता है और इसी का आदी हो जाता है. इस सबमें वह पाता क्या है? दरअसल वह अपने सपनों की, अपने सम्बन्धों की, अपने परिवार की और अपनी बलि देता है. वह अपनी वास्तविक मानवीय प्रकृति को खो बैठता है. वह खुद के लिए एक झूठी दुनिया का निर्माण करता है और अंततः खुद को खो देता है.

 

सोचिए कि अपनी वास्तविकता को खोकर हमने क्या पाया? हम बारिश से ही महरूम नहीं हुए. बच्चों के लिए हम अजनबी हो गए और बच्चे हमारे लिए. बड़े बुजुर्ग हमारे घरों से बाहर हो गए. पुराने सामान की तरह. उनके लिए शहरों से दूर वृद्धाश्रम बना दिए गए. वे अपने जीवन के आखिरी दिन गिन रहे होते हैं और बच्चों को दी अपनी परवरिश, उनकी तथाकथित सफलता की विडंबना पर आँसू बहा रहे होते हैं. उनके बच्चों का सफल होना उनके लिए सज़ा बन जाती है. बच्चों को समाज के दबाव में चूहा दौड़ का हिस्सा बनाने में उनका भी योगदान रहा होगा.

 

आज हमारे परिवार समाप्त हो गए. हम संयुक्त से न्यूक्लियर और अब न्यूक्लियर से माइक्रोन्यूक्लियर परिवार की तरफ बढ़ गए हैं. टेक्नोलॉजी के युग में तो ऐसा लगता है कि हम परिवार रह ही नहीं गए हैं. हम ‘होममेट’ होते जा रहे हैं. घर सिर्फ स्थायी वस्तुएं रखने का स्थान मात्र रह गया है. जैसे बैंक के लॉकर. सुरक्षित स्थान. आप कहेंगे ऐसा कैसे. तो ज़रा सोचिए, हम घर पहुँचकर कब अपनों के पास बैठते हैं. कब बातें करते हैं. आपने कब आखिरी बार बच्चों से पूछा था क्या हाल है. हम टीवी देखते हुए या मोबाइल पर बात करते हुए खाना खाते हैं. सोशल मीडिया से जुड़े-जुड़े सो जाते हैं और रोज यही दोहराते रहते हैं.

 

व्यक्ति आत्महत्या जैसा कदम उठाता क्यों है, इसकी मनोवैज्ञानिक व्याख्या में न जाकर सामान्य बात करें, तो कह सकते हैं कि व्यक्ति अकेला महसूस करता है. कोई साथी नहीं दिखाई देता जो मुसीबत में उसका हाथ थाम सके. कोई कहे ‘तू चिंता मत कर. सब ठीक हो जाएगा.’ कोई बोल दे, ‘मैं साथ हूँ ना.’ ‘कोई गले लगा कर कहे, हम मिलकर सब बेहतर कर लेंगे.’ बस ये सुनने को व्यक्ति तरस जाता है. इसमें कहीं न कहीं आज के सामाजिक-पारिवारिक वातावरण का ही दोष है कि व्यक्ति अकेला दिखाई ही नहीं देता, बल्कि अकेला होता भी है. हम बस सफल होने के लिए दौड़ रहे हैं. जब सफल होते हैं तो पाते हैं कि शिखर पर अकेले हैं. अब खुशी भी बाँटें तो किसके साथ. हम छोड़ आते हैं अपनों को, बहुत पीछे कहीं. हम खुद को भी छोड़ चुके होते हैं. हमारा प्रेत रह जाता है. तब शायद आभास होता है कि हम संवेदना शून्य होकर दौड़ रहे थे. अब जब संवेदना पाने की जरूरत महसूस हुई तो कोई साथ ही नहीं है.

 

आप संगीत सुनते होंगे. संगीत मन को कहीं न कहीं सुकून देता है. लेकिन जीवन में खुद को, अपनों को पा लेने का संगीत सबसे अलहदा और सबसे खूबसूरत होता है. हम इस ओर ध्यान नहीं देते हैं. आज इस समस्या से निजात पाने के लिए तमाम अभियान चलाए जाते हैं. दिल्ली मेट्रो ने सोशल मीडिया पर ‘डोंट गिव अप’ कैंपेन शुरू किया है. हाल में ही 10 सितंबर को ‘विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस’ मनाया गया. इसके बारे में संभवतः बहुत कम लोगों को जानकारी होगी. कार्यक्रम भी ज्यादातर अकादमिक क्षेत्रों में ही हुए. जन जागृति लाने वाले कार्यक्रमों का अभाव रहा. कारण, लोग इस बारे में बात करना नहीं चाहते. उन्हें डर लगता है कि लोग क्या कहेंगे. यहीं से सबसे बड़ी समस्या शुरू होती है. आज समाज को “डोंट गिव अप” जैसे कार्यक्रमों की ज़रूरत नहीं है, जिसके शुरू में ही “डोंट” है. एक नकारात्मक भाव. हमें सकारात्मक कार्य करना चाहिए. आओ गले लगें, दिल की कहें, खुल कर बोलो, हम आपको सुनेगें जैसे अभियानों की जरूरत है. ऐसे कार्यक्रमों की जरूरत है, जिनमें हम अपने मन की बात कह पाएं, सुन पाएं, बोल पाएं. फिर देखिए आप खुश रहेंगे. हमारे-आपके आसपास के लोग खुश रह पाएंगे. वे खुदकुशी के बारे में सोचेंगे भी नहीं, बल्कि खुदखुशी से रहेंगे.

 

आइए हम परिवार में रहना सीखें. अपनों के साथ संवाद कायम करना सीखें. बड़ों से मिलें, त्यौहारों के वास्तविक महत्त्व को समझें. बड़ों का आशीर्वाद लें. छोटों की दुआएं कमाएं. अपनों का साथ पाएं. खुद खुश रहें. दूसरे को खुशी बाँटें. परस्पर मिलें, गले लगें. अपने परिवार पर, अपनों पर विश्वास करना शुरू करें. अपने आस-पड़ोस में लोगों से मिलें. ऐसे समूह बनाएं जो सामाजिक सांस्कृतिक कार्यक्रम मिलकर करें. फिर देखिए हमें 10 सितंबर को आत्महत्या निवारण दिवस मनाने की जरूरी नहीं रहेगी. क्योंकि हम सम्बन्धों में स्पष्टता, सौहार्द्र अपनाएंगे तो हत्या या आत्महत्या का विचार ही नहीं आएगा. बस आप अपने लिए अपने बनाए “खोल” से बाहर आ जाएं. यह अविश्वास का खोल है. आप परिवार से संवाद कायम करें. अगर वहाँ झिझक हो रही है तो दोस्तों से बात करें. अगर वहाँ भी दिक्कत हो रही हो तो काउंसलर की मदद लें. पर संवाद अवश्य शुरू करें. बोलें. सुनें. कहें. सब बेहतर नज़र आने लगेगा. आप खुशहाल हो जाएंगे. खुश रहेंगे. आपकी ड्रीमगर्ल का तो पता नहीं आप अपने ड्रीम्स जरूर पा लेंगे.

 

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