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ऑनलाइन खरीददारी बंद करवा दीजिये और बाजारों में खरीददार बढ़वा दीजिये। ये जीएसटी का असर जैसा रोना धोना छोड़कर कोई तो हकीकत क़बूलिये।
बचत को ऑनलाइन कंपनियां लील गई तो खरीददारी करने कैसे पहुंचेगा कोई बाजारों में। अधिकतर का हाल इससे ही पता चलता है की गुंजाइश नहीं होते हुए भी दस बीस हजार का मोबाइल रखना आम बात। खर्चे आमदनी से ज्यादा करके बैंकों-कंपनियों के कर्जदार बन चुके हैं बाजार के उपभोक्ता फिर भी इस कड़वे सच को दरकिनार कर सरकारी निति को कोसना हमने नहीं छोड़ा है।
देश-विदेश में अर्थशास्त्री बड़े बड़े होंगे पर सर्वे और कागजों के दम पर चलते-चलाते रहने का उनका हुनर वास्तविकता सामने आने नहीं देता और सब मिलकर झूठ को बढ़ाते हुए अधिक दारुण परिस्थितियों का निर्माण करने कराने के सहभागी बनते हैं।
किसी भी बात तथ्य में विरोधाभास का कोई स्थान नहीं होता, जहां विरोधाभास होने लगता है वहां सच झूठ से छिपता नजर आता है।
कुछ बातें हैं अगर उनको सही माने तो मंदी कहीं नहीं हे,वरन हमारी जेब ही ठंडी पाई जा रही है।
जन्म-मृत्यु ,खानपान,रहनसहन,आवाजाही सहित तमाम सुविधाएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं और जिसकी जितनी गुंजाइश उसके अनुसार उनका उपभोग करने में लोग जुटे हैं। ऐसे में बाजार जाकर खरीददारी करने का चलन कम हो चुका। ऑनलाइन माल कैसा भी हो पर बाजार से सस्ता मिलने से लोग अपना ज्यादातर बजट खपा देते हैं।
छोटी से लेकर बड़ी चीज ऑनलाइन बाजार वाले तत्काल और भी सुविधादायक ऋण स्वीकृति करके मुहैया करवाने में बाजारों को मात दे रहे हैं। ये हकीकत अनदेखी करके दुकानदार मंदी और जीएसटी का रोना धोना में लगे हैं।
अगर मंदी जीएसटी का विपरीत असर पड़ेगा तो बड़ी बड़ी कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ने के बजाए घटने का मातम मनाती मिलती। कोई सा भी सेक्टर ले लो उसका सामान की बिक्री में गिरावट नहीं है,और दीपावली के बाद के आंकड़ें भी ये ही कहानी रही ?
सीधी से बात है कर्जा की मार के दौरान जो मौका मिला उसके अनुसार खरीददारी करने लोग बाजार में पहुंचते हैं। जिसकी जितनी कमाए उससे कम खर्च करने के दिन आजकल किसी को पसंद नहीं और एग्रीमेंट के साये में कर्जा की किश्तें जारी हैं।
जेब में पैसा नहीं बचत भी सलटाकर किस्तें भरने के बोझ तले दबे लोग अब बाजार को ठेंगा ही दिखाएँगे ?कमजोर खुद को कैसे बताएं और कारण दूसरे के मथे थोपना फितरत भी चोखी लगे ?
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