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वाल्मीकि जयंती पर शोभायात्रा निकल रही थी । शोभायात्रा मार्ग पर वाहनों का आवागमन प्रतिबंधित था। नतीजतन कार्यालय आने के लिए मैने रिक्शा चौराहा गली की ओर मुड़वा ली। वहां एक महिला से उसका बच्चा शोभायात्रा देखने के लिए जिद कर रहा था और महिला उसे समझा रही थी – देखो, तुम्हें हमने राम जी का जुलूस(राजगद्दी की शोभायात्रा) दिखाया था कि नहीं। अब घर चलो। यह जुलूस उन लोगों का है जो सड़क पर सफाई करते हैं। इन शब्दों ने मेरे मन को झकझोर दिया और मैं पूरे रास्ते यही सोचता रहा कि क्या महर्षि वाल्मीकि किसी जाति विशेष के ही आराध्य हैं? कल्पना कीजिए अगर महर्षि वाल्मीकि न होते तो क्या श्री राम हमारी आस्था के केंद्र होते? क्या आज श्री राम की हिंदू समाज में पूजा होती? क्या जगह- जगह श्री राम मंदिर होते? सवाल उठता है कि जिस महर्षि ने रामायण रच कर श्री रामकथा को जन-जन तक पहुंचाया, वह संपूर्ण हिंदू समाज के आराध्य क्यों नहीं हो सकते? जिस आदिकवि को वेदव्यास, कालिदास,भवभूति,महाकवि भास, रामानुजादि सभी संप्रदायाचार्यों ने श्रद्धापूर्वक स्मरण किया हो। महाकवि तुलसी दास तक ने ‘बंदउँ मुनि पद कंजु रामायन जेहिं निरमयउ।Ó लिख कर जिनकी वंदना की हो, उस महर्षि को क्यों एक जाति विशेष के दायरे में बांध दिया गया है? जबकि महर्षि ने वाल्मीकि रामायण में स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है।
वहीं सवाल यह भी उठता है कि महर्षि वाल्मीकि जयंती पर निकलने वाली शोभायात्रा में पूरा हिंदू समाज क्यों नहीं शामिल होता है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को साधुवाद कि उसका आनुषांगिक संगठन सामाजिक समरसता मंच उनकी जयंती पर कार्यक्रम करके सामाजिक भ्रांतियों को दूर करता है। सरस्वती शिशु मंदिरों में कार्यक्रम आयोजित कर उनके आदर्शों को जीवन में उतारने का आह्वान किया जाता है। संस्कार भारती और सेवा भारती भी कार्यक्रमों का आयोजन करती है।
मेरा मानना है कि महर्षि वाल्मीकि ही नहीं किसी भी महापुरुष को हमें जाति के बंधनों में नहीं बांधना चाहिए चाहे वह महाराज चित्रगुप्त, भगवान परशुराम हों, या महात्मा ज्योतिबाफूले,डा. भीमराव अंबेडकर हों या फिर महाराजा हरिश्चंद्र ं,महाराजा अग्रसेन ही क्यों न हों। इस दिशा में इन महापुरुषों के अनुयायियों को भी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर पहल करनी होगी और कार्यक्रमों में पूरे हिंदू समाज की सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी
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