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मोबाइल फोन में खो गयी चिट्ठी

परंपरा
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खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू…, फूल तुम्हें भेजा है खत में…,ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर तुम नाराज न होना…, डाकिया डाक लाया …, चिट्ठी आई है,आई है,चिट्ठी आई है…, जैसे गीतों के अर्थ अब समय के सीने में समा गये हैं। अब खत में फूल भेजना तो दूर कोई किसी को खत भी नहीं लिखता। अब तो बड़े दिनों के बाद भी चिट्ठी नहीं आती और न ही कोई घर के दरवाजे पर निगाहें गढ़ाता हुआ डाकिए का इंतजार करता है।
जी हां, सच यही है कि अब दिल की बात, सुख-दुख, हंसी – ठिठोली का अहसास कराने वाली चिट्ठी मोबाइल फोन में खो गई है और इसी के साथ खत्म होती जा रही हैं हमारी संवेदनाएं, हमारे अहसास। सब कुछ लील लिया है इस मोबाइल फोन ने। अब तो नए साल पर कोई ग्रीटिंग कार्ड भी नहीं आता। आता है, तो मोबाइल फोन पर बस एसएमएस। शायद लोगों के पास समय ही नहीं रहा या फिर वे सुविधा भोगी हो गए हैं। कौन लिखे चिट्ठी या खरीदकर लाए ग्रीटिंग कार्ड और उसे पोस्ट करने के लिए डाकघर भी तो जाना पड़ेगा। पता नहीं कितने दिन बाद चिट्ठी मिलेगी और यह जरुरी भी नहीं कि मिल ही जाये।
एक समय था कि चिट्ठी पाने के लिए अधीरता के साथ डाकिए का इंतजार रहता था। चिट्ठी मिलने पर एहसास होता था कि चिट्ठी लिखने वाला सशरीर उसके पास है। दसियों बार चिट्ठी पढ़ी जाती थी और हर बार उससे जुड़ी यादों में मन खो जाता था। पति-पत्नी, प्र्रेमियों के लिए तो चिट्ठी दुर्लभ वस्तु की तरह होती थी, जिसे वे सीने से लगाए रखते थे। यही नहीं एक- दूसरे की चिट्ठी पढऩे की भी ललक होती थी और लोग चोरी छिपे पढऩे से चूकते भी नहीं थे। अब मोबाइल फोन पर आवाज तो सुनने को मिल जाती है लेकिन वह एहसास नहीं होता जो चिट्ठी पढऩे में होता था। वहीं कोना कटा पोस्टकार्ड देखते ही मन आशंकित हो जाता था(किसी की मृत्यु होने पर दसवां तेरहवीं संस्कार की सूचना देने के लिए लिखी गयी चिट्ठी)। किसी का ग्रीटिंग कार्ड आता था तो उसे देखकर ही दिल खुश हो जाता था और सालों उसे सहेज कर रखा जाता था। अब इधर एसएमएस आया, उधर उसे डिलिट किया। पहले पत्र-मित्र बनाने के लिए भी चिट््िठयां लिखी जाती थीं। इसके लिए अखबारों – पत्रिकाओं में बाकायदा एक स्तम्भ भी होता था। जगह-जगह पत्र-मित्र क्लब बने हुए थे। समय के साथ अब यह भी खत्म होता जा रहा है।
चिट्ठी पत्रों से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व और लेखन क्षमता का भी पता चलता था। मोतियों जैसे सुन्दर अक्षर, भाषा और शैली देखकर ही मन मुग्ध हो जाता था। पत्र लेखन एक कला मानी जाती थी। अब तो यह मात्र स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा मात्र ही रह गयी है। साहित्यकारों के पत्र, राजनीतिज्ञों के पत्र, स्वतंत्रता सेनानियों के पत्र तो काफी चर्चित भी रहे। यही नहीं इसे साहित्य की एक विधा के रुप में भी स्वीकार किया गया। पत्र साहित्य पर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। महात्मा मुंशीराम ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्रों को सन् 1904 ई. में प्रकाशित कराया था। सन्1944 में धीरेन्द्र वर्मा द्वारा संपादित ‘यूरोप के पत्रÓ पुस्तक प्रकाशित हुई। रामकृष्ण आश्रम देहरादून से विवेकानन्द पत्रावली छपी तो द्विवेदी पत्रावली (बैजनाथ सिंह ‘विनोदÓ),पद्म सिंह शर्मा के पत्र
(बनारसी दास चतुर्वेदी),पंत के दो सौ पत्र (हरिवंश राय बच्चन),
निराला के पत्र(जानकी बल्लभ शास्त्री),बन्दी की चेतना(कमलापति त्रिपाठी),आज भी हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब इस विधा का ही लोप हो जायेगा और पत्र व्यवहार का संसार अतीत के सुनहरे पृष्ठों में सिमट कर रह जायेगा।

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