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देश में न्यायिक सक्रियता का जो दौर चल पड़ा है वो आम जन के लिए राहत का विषय जरुर हो सकता है. किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत में न्यायपालिका संप्रभु नही हैं. देश में जनहित को ध्यान में रखते हुए न्यायालयों की सक्रियता को जायज ठहराने से पहले हमे भारत के लोकतान्त्रिक स्वरुप को समझना होगा. भारत में ब्रिटेन की तरह न तो संसद संप्रभु है और न अमेरिका की तरह न्यायपालिका. अगर देश में योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु कोर्ट सरकार को फटकार लगाती है तो इसमें ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं है. ये हमारे कार्यपालिका की विफलता का संकेत हैं. कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता है कि देश को संसद की जरुरत है भी या नहीं. राष्ट्रपति महोदय ने भी न्यायिक सक्रियता को विधायिका और कार्यपालिका के लिए खतरनाक माना है. लोकतंत्र में जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों से अधिक अपेक्षा होती है. अन्यथा लोकतंत्र का क्या औचित्य ?
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