- 6 Posts
- 18 Comments
कहानी इस प्रकार : हीरो की प्रॉब्लम है कि वह बुरा है। बुरे काम करता है। जैसे…? फिल्मों की पायरेसी! लेकिन हीरो को सुधरना होगा क्योंकि कहानी को आगे बढऩा है। हीरो को उसका अंकल समुंदर पार भेजता है। जा, फर्जी पासपोर्ट पर मेरे कबूतर… जा जा जा…।
हीरो पहुंचता है समुंदर पार। गोरों के देश में।
गोरे बहुत मारते हैं। इस मार को ‘नस्लीय हमला’ कहते हैं। लेकिन हीरो को अच्छा इंसान बनना है। मार-पीट में नहीं पडऩा है।
गोरों के देश में हमेशा के लिए रहने वास्ते ‘ग्रीन कार्ड’ लगता है। इसे पाने दो रास्ते हैं। एक मेहनत-मजूरी का कठिन रास्ता। दूसरा है, लडक़ी पटाओ। जो कम से कम हीरो के लिए तो कठिन नहीं। हीरो को गोरी-सांवली कैसी भी चलेगी, बस वहां की होनी चाहिए। हीरो की किस्मत इतनी बढिय़ा कि उसे दोनों मिलती हैं। अब ‘राइट चॉइस बेबी’ उसे ही करना है। गोरी तन दिखा-दिखा रिझाती है। सांवली मन से मन मिलाती है।
कहानी में खलनायक जरूरी है। यहां दो हैं।
गोरी और सांवली के भाई। एक-दूसरे की नस्ल के प्रति नफरत से भरे।
हीरो नस्ल के झंझट में नहीं पडऩा चाहता। उसे सिर्फ ‘ग्रीन कार्ड’ से मतलब है। लेकिन कहानी में ट्विस्ट आता है और गोरी-सांवली नस्लीय झंझट में उलझ जाती हैं। अब हीरो क्या करेगा…?
पहले खलनायकों को ठिकाने लगाएगा। फिर संत जैसा भाषण देगा… प्यार, मोहब्बत, भाईचारे का। बताएगा कि बुराई किसी एक में नहीं, सबमें है। हममें है, तुममें है, सबमें है। आओ, हम सब मिलकर इस बुराई को खत्म कर दें। एक-दूसरे से प्यार कर लें।
* * *
कहानी की बिक्री : प्रोड्यूसर को समझाना होता है कि देख भैये, ऑस्टे्रलिया में एक-डेढ़ साल में भारतीयों पर नस्लीय हमलों की खूब खबरें आई हैं। एकदम सही टाइम है ये इस फिल्म के लिए। इसमें सब मसाले हैं। इस फिल्म से बॉलीवुड का इंटरनेशनल फलक और चौड़ा होगा। दुनिया देखेगी कि हम कितना ग्लोबल सोचते हैं। फिर गोरी हीरोइन के बहाने पर्दे पर जिस्म की नुमाइश की गुंजायश भी खूब है। लखटकिया मल्टीप्लेक्स से लेकर टप्पर वाले थियेटरों के लिए सारे तडक़े। घाटे का तो सवाल ही नहीं।
* * *
फिल्म का क्या : फिल्म जब तक बनी। तब तक नस्लीय हमले ठंडे हो गए। उस पर फिल्म और भी ठंडी। हीरो-हीरोइन-डायलॉग-सैट। सब कुछ। ठंडी फिल्म के लगातार गिरते तापमान को गोरी अपने जिस्म की आंच से बार-बार तेज करती रही। लेकिन कितना कर पाती…? आखिर में बॉक्स ऑफिस नाम की जगह पर फिल्म धराशायी हो गई।
* * *
नतीजा : कहानी बुरी। फिल्म बुरी। राइटर-डायरेक्टर बुरा। ऐक्टरों का काम बुरा। सीख यह कि बुरे काम का बुरा नतीजा। अंत में प्रोड्यूसर तन्हा रह जाता है और पैग गटकते हुए फर्जी सपने दिखाने वालों के लिए कहता है, ‘क्रूक (छलिया) कहीं के…।’
* * *
Read Comments