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उत्तर बिहार में बाढ़ ने ऐसी तबाही मचाई है कि बेहतर भविष्य के सपने देखने वाले लोग सड़क और बांध पर हैं। सुंदर काया दुर्बल हो चुकी है। पानी में उतराते लावारिस शव को गिद्ध नोच रहे हैं। ये सब आंखें देख रही हैं, मगर कोई भाव नहीं, सब कुछ शून्य। इस बीच हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट सुन कुछ लोग दौड़ते हैं, भागते हैं-राहत पाने के लिए। मगर राहत भी उसे ही मिली जिसकी काया में जान अभी बाकी है।
आदमी और पशु में कोई भेद नहीं। पशु शौच कर रहे, आदमी देख रहा, पास ही खाना खा रहा है। पीने को पानी नहीं, चापाकल डूबे हुए हैं। उफनती धारा में से एक लोटा पानी निकाला और छानकर गटक लिए। न बीमारी की चिंता, न इंफेक्शन लगने की। बस प्यास मिटनी चाहिए। यह वही पानी है, जिसमें पड़ोसी कुछ युवक अभी-अभी स्नान करके आए हैं, लेकिन बहता पानी है, गंदगी बह गई होगी। दिल को तसल्ली देने के लिए यह काफी है।
आदमी को घास खाकर भी जिंदा रहने की कहानी कई किताबों में छप चुकी है। जिंदा रहना है तो सब कुछ सहना होगा। बाढ़ अरबों-खरबों की संपत्ति बर्बाद कर चुकी है। हर साल करती है, हर साल लोग नारकीय जिंदगी जीते हैं। हर साल सरकार राहत बांटती है। मदद देने का वादा करती है, लेकिन स्थायी निदान की ओर ध्यान नहीं।
नदियों में सिर्फ गाद, गहराई खत्म। ऐसा नहीं कि योजना नहीं बनती, बनती है, कागज पर बनती है। वास्तव में एक साल में जितनी राशि बाढ़ पीडि़तों को दी जाती है, उतनी यदि बांध पर खर्च कर दी जाए, नदियों को रास्ता दे दिया जाए, तो संभवत: इतनी बर्बादी नहीं होगी।
चांद पर जाने की कल्पना को साकार करने का जज्बा है, रहस्यमय सूर्य का भेद जानने को आतुरता, लेकिन बाढ़ के स्थायी समाधान के प्रति अरुचि। मई माह में विभाग ने दावा किया था कि सारे बांध को किले की तरह मजबूत बना दिया गया है।
इसकी सुदृढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तेज बारिश में ही बांध में जगह-जगह सुराग हो गए, फिर नदी ने जब रौद्र रूप दिखाया तो भला कैसे खड़ा रहता बांध, धराशायी होने का लेखा-जोखा तो इंजीनियर ने पटकथा में पहले ही लिख डाला था। मगर उनका क्या कसूर जो बांध पर टुकुर-टुकुर मदद की राह देख रहे हैं? जिन्हें ठीक से मदद भी नहीं मिल रही है। उन्हें उस गलती की सजा मिल रही है, जो किसी और ने की है। मगर वो तो एसी में जीवन गुजार रहे, उन्हें भगवान से खौफ नहीं, क्योंकि दान में मोटी रकम देते हैं, लेकिन बेचारे भोले-भाले और गरीब बाढ़ पीडि़त…।
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