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रिश्तों की घटती मिठास

जरा हट के
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पुरानी पीढ़ी परदादा के पिता का नाम भी जानती थी। घर के काकी-काका सारे रिश्ते का अलग महत्व था। घर में सबका सम्मान था। बच्चे दादी-दादी के बिना रह नहीं पाते थे। छुट्टियों में नानी-नाना की याद आती थी। बहनें घर की लाडली थीं, वो कुंआरी हों या फिर शादी-शुदा। चचेरे भाई अपनों की तरह थे। लेकिन इस अर्थ युग में रिश्तों की मिठास घट रही है। गए तीन दशक पीछे जाएं और तुलना वर्तमान से करें तो स्थितियां स्पष्ट हो जाएंगी। क्यों हो रहा ऐसा? इस प्रश्न का उत्तर जानने की आतुरता स्वाभाविक है। इसका समाधान भी आवश्यक है। निश्चित रूप से आज की पीढ़ी पहले से जागरूक हुई है, पहले से अधिक जिम्मेदारियों को समझ रही है। 25 साल का युवक पहले घर खरीदना चाहता, फिर शादी करना। यह बदलाव ही तो है। यानी वह जिंदगी को सेफ करके चलना चाहता है। हां, इस दौर में वह पैतृक स्थल से जुड़कर नहीं रहना चाहता। वह लाभ के लिए सात समंदर पार जाने को भी तैयार है। जाहिर है जब कुछ अलग करेगा, तभी पैसे आएंगे। हालांकि इस क्रम में वह अकेला पड़ जाता है। आर्थिक क्षेत्र में तो मजबूत हो जाता है, लेकिन अपनों से दूर। माता-पिता को साथ रख नहीं सकता, क्योंकि उनकी सेवा कौन करेगा? तीस की उम्र होते-होते अभिभावकों की जिद में वह शादी कर लेता है, इस शर्त पर कि कमाऊ पत्नी चाहिए। अब पति कहीं और पत्नी कहीं और। माता-पिता को कौन रखेगा? कभी-कभार वे पहुंचे तो आराम नसीब नहीं, सो उलटे पांव घर वापस, एकाकी जीवन जीने के लिए। घर में मासूम की किलकारी गूंजने के बाद भी स्थिति बहुत नहीं बदलती। बच्चे आया के पास और पति-पत्नी नौकरी पर। ऐसे में माता-पिता का कहां स्थान है? दादा-दादी की इच्छा तो पोते से मिलने की होती है, लेकिन वे भागदौड़ से बचना चाहते हैं। जाहिर है बच्चा बड़ा होगा और जो समाज से सीखेगा, उसी के अनुसार तो होगी अगली पीढ़ी। ऐसे में बहनें कहां हैं, जो भाई के पास आनी चाहती हैं? चचेरे तो सचमुच ‘चचेरे’ हो गए हैं। एकाकीपन जीवन कई तरह की समस्याओं को भी जन्म दे रहा है। हमें चेतना होगा। संभलना होगा। इसे लेकर कई समाजशास्त्रियों ने चिंता जताई है। समय का यह वो दौर है जब अभिभावकों को बच्चों की मानसिकता को दिल से महसूस करने की जरूरत है। भागदौड़ की गति चाहे कितनी ही तेज क्यों न हो, बच्चों को रास्ता निकालना होगा कि अभिभावक उनके पास रहें। बच्चों को परिवार का दुलार मिले न कि आया के भरोसे उनकी जिंदगी। विदेश में तो रिश्तों की परिभाषा तेजी से बदल रही है। भारत में शुरुआत है।
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