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इन नेताओं की कोई ‘जात’ नहीं

जरा हट के
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नुक्कड़ की दुकानों पर अक्सर एक आवाज सुनाई देती है-इन नेताओं की कोई ‘जात’ नहीं। कहनेवाला कम पढ़ा-लिखा होता है, मगर उसमें आत्मविश्वास की कमी नहीं दिखती है। मतलब साफ है कि वह इन शब्दों को बखूबी समझ रहा है। छात्रों के बीच जाएं तो इंटर-बीए के छात्र भी प्राय: नेताओं पर कटाक्ष करते रहते हैं। लेकिन चुनाव के समय कई बार ऐसा देखा जाता है कि ‘वो’ नेता जीत जाता है, जिसके खिलाफ जनता सालभर कटाक्ष करती रही। यानी नेताओं की ‘जात’ और उनके ‘खेल’ को समझना इतना आसान नहीं। खुद नेताजी भी समय-समय पर स्वीकारते हैं कि उन्हें समझना कठिन है। कुछ साल पीछे जाएं तो लोजपा सुप्रीमो रामविलास पासवान ने कई भाषणों में भाजपा सरकार की आलोचना की थी। लेकिन, थोड़े ही दिनों में इन्हें लगने लगा था कि बिना कुर्सी पॉलिटिक्स बेकार है। सो, आनन-फानन में भाजपा का दामन थाम लिया। मंत्री भी बन गए, पक्ष में बोलने भी लगे। हालांकि ये कहना न भूले कि वे अपनी शर्तों पर जुड़े हैं। बिहार की राजनीति में सदैव सत्ता के पास रहने वाले शिवानंद तिवारी कभी राजद सुप्रीमो के करीबी माने जाते थे। राजद ने जैसे ही सत्ता गंवाई, इन्होंने नीतीश कुमार का दामन थाम लिया। और, वर्षों जिनके साथ रहे, उनके विपक्ष में बोलने लगे। यानी राजनीति के ये धुरंधर कब चेंज हो जाएंगे, कब किसके पक्ष-विपक्ष में बयान देंगे, कहना काफी मुश्किल है। इस माह बिहार की राजनीति ने जो करवट ली, उसपर पूरे देश की नजर टिकी रही। कई दिनों तक बड़े अखबारों और चैनलों में यह समाचार छाया रहा। वजह थी सतरह सालों से चल रहा गठबंधन का एक झटके में टूट जाना। कारण बताया गया नरेन्द्र मोदी को, जिनके नेतृत्व में भाजपा लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहती है, जीतना चाहती है। मगर नीतीश को यह मंजूर नहीं। यहां नीतीश ने गठबंधन इस वजह से आसानी से तोड़ लिया, क्योंकि उनके पास 118 सीटें थीं, और सरकार बनाने में सिर्फ चार विधायकों के सपोर्ट की जरूरत थी। इसलिए उन्होंने भाजपा को बाहर का रास्ता दिखा दिया। सारा ‘खेल’ और सारी राजनीति के पीछे मुसलमान वोट माना जा रहा है। जदयू के नीतीश कुमार इस वोट को कतई नहीं खोना चाहते हैं। इन वोटों के बूते उन्हें विश्वास है कि इनकी कुर्सी नहीं हिलेगी। कल तक नीतीश के हर छोटे-बड़े कार्यक्रम में भाजपा के पर्यटन मंत्री सुनील कुमार पिंटू दिखते थे। गठबंधन टूटते ही जदयू और भाजपा के नेता एक-दूसरे के खिलाफ टीका-टिप्पणी करने लगे। हर कोई आग उगल रहा है। उसी अंदाज में मानों कभी एक-दूसरे को जानते ही नहीं। दोनों पार्टी के नेताओं ने गठबंधन टूटने की खुशी में पटाखे भी फोड़े, तालियां भी बजीं। वास्तव में इन नेताओं की कोई ‘जात’ नहीं। ये हरदम स्वार्थ की नकाब ओढ़े रहते हैं। नफा-नुकसान देखकर खुद को बदल लेते हैं। वाह नेताजी, मान गए आपकी…।

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