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बीते दशकों में केंद्र में सरकार बदली, लेकिन एक चीज नहीं बदली, वो है रेलवे की कुव्यवस्था। राजधानी व शताब्दी सरीखे ट्रेनों को छोड़ कोई भी रेलगाड़ी समय पर गंतव्य तक नहीं पहुंचती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ड्रीम प्रोजेक्ट है कि देश में बुलेट ट्रेन चले। वास्तव में इसकी आवश्यकता भी है। लेकिन इससे पहले जरूरी है कि कुव्यवस्था में सुधार हो। ट्रेनें समय पर गंतव्य स्थल तक पहुंचें। यात्रियों की सुविधा के जो दावे किए जाते हैं, उन्हें मिले। गए दिनों मीडिया में जोर-शोर से एक खबर आई कि यात्रियों को मनपसंद भोजन मिलेगा। साल में सात से आठ बार दिल्ली जाने वाले पटना निवासी शंकर उर्फ चुन्नू कहते हैं कि राजधानी ट्रेन में जो खाना की सप्लाई होती है, उसे देखकर यही लगता है कि अत्यंत साधारण होटल में इसे तैयार किया गया है। कई सालों से एक ही तरह का भोजन परोसा जा रहा है। अनेक यात्री इसकी शिकायत कर चुके हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला। इसी तरह पाटलिपुत्र से चंडीगढ़ जाने वाली ट्रेन 13256 में पैंट्रीकार नहीं है, जबकि यह लंबी दूरी की ट्रेन है। इसका फायदा उठाते हैं, आइआरटीसी के नाम पर भोजन सप्लाई करने वाले। नब्बे रुपये की थाली ये 170 रुपये में देते हैं। क्वालिटी की बात करें तो इसका खाना कोई भी सामान्य व्यक्ति नहीं खा सकता है। ट्रेन की एसी बॉगी में भी इस खाने की सप्लाई की जाती है। विवश होकर लोग खरीदते हैं, लेकिन खा नहीं पाते। आखिर इस कुव्यवस्था को रोकेगा कौन? कम से कम ट्रेनों में चलने वाले टीईटी या सुरक्षाकर्मी तो इसे नहीं रोक सकते, क्योंकि ये तो ट्रेन में चढ़ते ही वसूली अभियान में ‘ईमानदारी’ से जुट जाते हैं। इन्हें यात्रियों के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं होता है। यहां एक प्रसंग की चर्चा आवश्यक है। दिल्ली से मुजफ्फरपुर आने वाले एक यात्री की ट्रेन कैंसिल हो गई। वे एक काउंटर पर पहुंचे तो देखा कि लंबी लाइन है। इसी बीच कंफर्म टिकट का दावा करने वाले कुछ दलाल खुलेआम टिकट बेच रहे थे। ग्रामीण परिवार से जुड़े इस व्यक्ति ने आठ सौ रुपये में स्लीपर का टिकट खरीदा। जैसे ही ट्रेन की बॉगी में आए टीईटी ने कहा कि टिकट जाली है। बॉगी में बैठे दस-बारह और लोग भी इस जद में आ गए। सबने पैसे देकर टीईटी से दुबारा टिकट बनवाए। हैरत की बात है कि यहां सरकार का पूरा महकमा बैठता है और इतनी बड़ी गड़बड़ी? आखिर रेलवे प्रशासन कर क्या रहा है। कोलकाता में भी खुलेआम प्लेटफॉर्म टिकट बेचा जाता है। वहां यह सिलसिला दशकों से चल रहा है, लेकिन आज तक इसपर पर रोक नहीं लगाया जा सका। हां, प्रतिदिन दर्जनों यात्रियों से फाइन जरूर वसूले जाते हैं। लेकिन दोषी रेलवे या फिर वे भोले-भाले जो इस कुव्यवस्था के शिकार हो रहे हैं।
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