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फलां चैनल टीआरपी बढ़ाने के लिए गलत खबर दिखा रहा है…फलां चैनल अश्लीलता परोस रहा है…फलां चैनल पर तो प्रतिबंध लग ही जाना चाहिए…फलां चैनल के कर्मचारियों को वेतन कम मिल रहा है…फलां चैनल के संपादक ने तो हद ही कर दी। प्रिंट मीडिया हाउस में काम करनेवाले व आम लोगों की जुबान पर ऐसे वाक्य बुदबुदाते देखा जा सकता है। कई जगह तो इसपर लंबी-चौड़ी बहस छिड़ जाती है। 18 नवम्बर 2010 के अंक में अधिकतर अखबारों ने खबर छापी कि बिग बॉस व राखी सावंत के कार्यक्रम (राखी का इंसाफ) को रात ग्यारह बजे के बाद ही देखा जा सकेगा। आरोप था कि दोनों में अश्लीलता परोसी जा रही है। अश्लीलता दिखाने वाले चैनल दोषी हैं या फिर उनसे ज्यादा हम? अश्लील फिल्म बनाने वाले ज्यादा दोषी या छिपकर, ब्लैक में टिकट खरीदकर देखने वाले? कोठा पर बैठी वेश्या दोषी या फिर उसे वहां बिठाने वाले सफेदपोश या फिर उसके यहां छिपकर जानेवाले? हजारों ऐसे बुजुर्ग हैं, जो टीआरपी बढ़ाने के लिए अश्लीलता और गलत तरीकों का विरोध चीख-चीखकर करते हैं। इसके विपरीत अकेले में बदन दिखाने वाली किसी अभिनेत्री की तस्वीर को गौर से देखते हैं।
टेलीविजन वालों को भान है कि ऐसा करने से लोग इस कार्यक्रम को ज्यादा पसंद करेंगे। ये तो हुई टेलीविजन चैनल वालों के टीआरपी की बात। क्या घर में टीआरपी बढ़ाने की कोशिश नहीं होती? क्या कार्यालय (निजी या सरकारी) में टीआरपी बढ़ाने की कोशिश नहीं होती? किसी दफ्तर में बॉस यदि किसी कर्मचारी की पीठ ठोंक कर यह कह दें कि बढिय़ा, अतिसुन्दर, वाकई आप मेहनती हो, लगे रहो! फिर तो उस कर्मचारी के हाथ मानो खजाना लग गया? वह सबकुछ छोड़कर अपना टीआरपी बढ़ाने में जुट जाता है, पहले वह सिर्फ काम करता था। अब वह वही काम अधिक करता है, जो टीआरपी बढ़ाने में उसकी मदद करे। इसका असर वैसे लोगों पर अधिक पड़ता है जिन्हें टीआरपी बढ़ाने की कला नहीं आती। ये धीरे धीरे पीछे होते चले जाते हैं। किसी ने टीआरपी बढ़ाने के लिए ड्यूटी समय से यदि एक घंटा ज्यादा काम करना शुरू किया तो किसी ने चार घंटा। किसी ने एक साप्ताहिक अवकाश नहीं लिया तो किसी ने साप्ताहिक अवकाश लेना ही बंद कर दिया। इसके पीछे का उद्देश्य सिर्फ स्वार्थ पर टीका होता है। ऐसे व्यक्ति को कंपनी या संबंधित बॉस से कोई लगाव नहीं होता? इन्हें तो सिर्फ टीआरपी बढ़ाने से मतलब होता है। वास्तव में टीआरपी बढ़ाने के लिए समाज का ही एक तबका मजबूर करता है। टीआरपी फार्मूला पर ही हजारों लोगों की नौकरियां बची रहती हैं। जो व्यक्ति अयोग्य है और गलत फैसले की वजह से उसे योग्य की कुर्सी मिल गई। ऐसे में टीआरपी फार्मूला पर ही उसकी कुर्सी बची रहती है। घरों में भी टीआरपी का प्रवेश हो चुका है। यह अलग बात है कि यहां इसका तरीका दूसरा है। व्यक्ति यदि सही हो तो उसे टीआरपी फार्मूले की जरूरत नहीं। यदि खोट है तो टीआरपी की ही जरूरत है।
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