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आगे की राह में कांटे बहुत हैं

रहबर
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2019 के लोकसभा का घमासान कैसा होगा उसका आइना कर्नाटक का घमासान दिखा गया। इस चुनाव में मुद्दे तो कई-कई उठे लेकिन याद नहीं आता कि एक बार भी विकास का मुद्दा कहीं हावी हुआ हो। विकास से कहीं ज्यादा बड़ा मुद्दा कई-कई चेहरे बदलकर अंततः हिन्दुत्व बना। राहुल गांधी ने भी मंदिर मठों में माथा पटककर खुद को हिन्दुत्व का झंडाबरदार साबित करने का भरपूर प्रयास किया, मगर कर्नाटक ने उन्हे गम्भीरता से नहीं लिया। आखिर ऐसा क्यों है कि मौजूदा दौर की सियासत में मुद्दा जब भी हिन्दुत्व या विकास बनता है तो उस मुद्दे पर यह देश कभी कांग्रेस या दूसरी विपक्षी पार्टियों पर भरोसा नहीं करता। उनके बजाये देश सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी ही पर भरोसा जताता है। अफसोस कि इस सवाल का जबाब आज तक न तो कांग्रेस ने ढूंढ़ने की कोशिश की! न ही मोदी फोबिया से ग्रसित दूसरी राजनीतिक पाटियों ने कि आखिर ऐसा क्यों होता है?

 

महाराष्ट्र, हिमांचल उ.प्र, और असम जैसे जिक्र के काबिल राज्यों के बाद अब कर्नाटक में भी वहां की आवाम ने मोदी पर ही भरोसा जताया और उनके चेहरे वाली भाजपा को 40 सीटों से उठाकर 104 सीटों पर पहुंचा दिया। उच्चतम न्यायालय के दखल से सत्ता की चाबी भले ही कांग्रेस जेडीएस गठबंधन ने झटक ली लेकिन यह महासमर नेपथ्य से जो एक पुख्ता संदेश दे गया उस पर कांग्रेस ने तो बिल्कुल भी गौर नहीं किया। न ही शपथग्रहण समारोह में वहां पर जमावड़ा लगाने वाले दूसरे सेक्युलर नेताओं ने। अगर किया होता तो बिना किसी मजबूत ऐजेंडे के वह महज उन्ही सेक्युलर ताकतों की लामबंदी के सहारे 2019 फतह करने का उतावलापन जाहिर नहीं करते, जिन्हे कि देश की आवाम निरंतर नकारती आ रही है।

लेकिन महज इतने से ही मोदी की आगे की राह प्रशस्त होते चले जाने की गारंटी नहीं है। क्योंकि हिन्दुत्व की राह बहुत कांटों भरी है। उसमें बेशुमार चुनौतियां अभी मुंह बाये खड़ीं है। मोदी से पहले इस राह पर हिन्दुत्व के कई दिग्गज सियासतदा फिसलकर गायब हो चुके हैं। उनमें अटल और आडवाणी प्रमुख नाम है। जिन्हे भाजपा के पुरोधा होने का भी तमगा हासिल है। हालांकि उनके राजनैतिक परिदृश्य से गायब होने की अपनी पुख्ता वजहें हैं जिसमें उनकी नीति और नीयत का गहरा दखल है। यह देश पहले से मंहगाई की मार को बड़े धैर्य से झेल रहा है। जी एस टी उस मंहगाई को और ज्यादा भड़का चुकी है। ऐसे में जब डीजल के दाम 72 रूपये प्रति लीटर तक पहुंच जायें और पेट्रोल 85 रूपये प्रति लीटर के पार बिकने लगे तो फिर आने वाले दिनों में महंगाई किस कदर भड़क सकती है इसकी कल्पना करना ज्यादा मुश्किल नहीं होगा। ऐसे माहौल में हिन्दुत्व के जज्बातों को सहेजे रखना देशवासियों के लिये आसान नहीं होगा।

 

विकास की बड़ी परियोजनाओं का आधारभूत ढांचा महज तेल की लाखों करोड़ की कमाई से तैयार नहीं किया जा सकता। न ही विदेशी बैंकों से कर्ज लेकर। फिर भले ही वह कर्ज कितने ही कम ब्याज पर लिया गया हो। क्योंकि उसके दूरगामी नतीजे और ज्यादा गम्भीर साबित होगें। विकास के लिये अर्थशास्त्र के हिसाब से आय के दूसरे ऐसे स्रोत ढूढ़ने होंगें जिससे प्रतिव्यक्ति आय में इजाफा होता हो और करदाताओं की जेब जख्मी होने के बजाये उस पर मरहम लगता हो। अगर हिन्दुत्व की ढाल में इन बुनियादी बातों की अनदेखी जारी रहती है तो फिर शायद देशवासियों के लिये धैर्य बनाये रखना मुश्किल हो जायेगा। रहबर को रास्ता बदलने के बजाये खुद को बदलना ही होगा।

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