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आज राजेन्द्र यादव हमारे बीच नहीं हैं. साहित्य जगत के लिए यह एक ऐसा रिक्त है, जिसे कभी भरा नहीं जा सकता. लेखकों, आलोचकों, प्रकाशकों और उनके सहकर्मियों के लिए यह समय पीड़ा का है. लेकिन एक लेखक का सम्बन्ध उसके पाठकों से होता है. लेखक अपने पाठकों में ही जन्म लेता है, बढ़ता है और सदा-सदा के लिए उनकी स्मृतियों में स्थापित हो जाता है. सही मायनों में लेखक पाठकों में जीता है. ऐसे ही प्रबुद्ध लेखक थे राजेन्द्र यादव.
मैं छोटे शहर और मध्यवर्गीय परिवार से सम्बन्ध रखने वाला सामान्य पाठक हूँ. मैं न तो कभी राजेंदर यादव से मिला न ही उनसे कभी कोई पत्र व्यवहार हुआ. हमारे बीच का रिश्ता सही मायनो में लेखक और पाठक का रहा . मैं उनके साहित्य से बहुत प्रभावित रहा. बात तब की है जब मेरी अवस्था सोलह वर्ष की रही होगी. साहित्य से मेरा सम्बन्ध हिंदी विषय को रटने तक ही था. साहित्यिक पुस्तकों के नाम से ही दूर भागता था. उन्हीं दिनों मेरे एक मित्र के घर मेरे सामने एक पुस्तक पड़ी. जिसके मैंने अनमने ढंग से दो-चार पेज पढ़ डाले. पुस्तक कुछ रोचक लगी तो पढ़ने के लिए मांग ली. घर जाकर पढ़ने के लिए बैठा तो पढ़ते-पढ़ते रात के १२ बज गए. पुस्तक को पूरा पढ़ डाला. यह पुस्तक थी राजेन्द्र यादव कृत सारा आकाश. सारा आकाश को पढ़ते हुए मेरी आँखें भीगीं, मेरे रोंगटे तक खड़े हुए और कितने ही अंशों को मैंने बार-बार पढ़ा. सही मायनों में इस उपन्यास को मैंने जीया. मुझे एक रट्टू विद्यार्थी से सुधि पाठक बनाने में, सहृदय बनाने में राजेन्द्र यादव का ही हाथ रहा. हंस कि भाषा में कहूं तो राजेन्द्र यादव मुझे बिगाड़ने वाले थे. तब से मेरी पुस्तकों से ऐसी दोस्ती हो गई के अच्छी पुस्तक अगर मिले तो जेब खाली होते हुए भी धन कि व्यवस्था कर ही लेता हूँ. मेरे मन मस्तिष्क में यादव सदैव जीवित रहेंगे.
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