AKSHAR
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कल-कल बहता शीतल जल था
बिलकुल निर्मल और सरल था.
सुधा सम यह प्यास बुझाता
निकट आ कोई रीता ना जाता.
पाँव डूबा यह मन हर्षाता
मन में कमल पुष्प खिल जाता.
पर्वत से सागर को मिलाती
संग-संग हरियाली लाती.
लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है
नदी नाले में बदल चुकी है.
अमृत जल विष बना है
पीछे इसके धुंआ घना है.
प्राण और संस्कृति की रक्षक
जिसके हम मानव बन गए भक्षक.
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