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आजकल एक चैनल पर एक हास्य धारावाहिक का विज्ञापन अक्सर दिखाया जाता है. जिसमें लाइसेंस न दिखाने पर एक पुलिस वाला, चाय-पानी और हरियाली जैसे शब्दों का प्रयोग रिश्वत मांगने के लिए करता है. कितनी ही ऐसी फिल्में और धारावाहिक हैं, जिनमें पुलिस और अपराधियों का गठजोड़ दिखाया जाता है. अब पुलिस की ऐसी छवि यों ही नहीं बन गई, अपितु इसके पीछे कड़वी सच्चाई है. हम सब ये जानते है के पुलिस का भय अपराधियों में कम और आम नागरिकों में अधिक है. पुलिस की भ्रष्ट छवि के कारण ही समाज में अपराधों की संख्या में इजाफा हुआ है. इसमें कोई दो राय नहीं होंगी के यदि हमारी पुलिस समय पर और त्वरित कार्य करे तो अपराधों पर लगाम लगाई जा सकती है. हालांकि बहुत से ऐसे पुलिस कर्मी भी है जो अपनी ड्यूटी पूरी लगन व ईमानदारी से करते हैं. उनकी बदौलत ही आज भी आम जनता का पुलिस पर विश्वास बना हुआ है.
सरकार कानून बनाती है पर उसे लागु करवाने का काम पुलिस का होता है. लेकिन हमारी पुलिस खुद ना तो उन कानूनों का पालन करती है ना ही उनका सम्मान. उदहारण के लिए पुलिस चाहती है के दोपहिया चलाते समय लोग हेलमेट पहनें. परन्तु पुलिस कर्मी कितना इस कानून का पालन करते हैं. छोटे नगरों में तो ना के बराबर. रिश्वत, ह्त्या, बलात्कार, जबरन वसूली जैसे कितने ही दाग हैं जो खाकी पर लगे हैं. लेकिन पुलिस है के चेतने का नाम नहीं लेती.
पुलिस का काम बहुत ही संवेदनशील काम है. पुलिस सताए हुए, लोगों के लिए आशा की किरण होती है. लेकिन यही किरण आज धूमिल होती जा रही है. थाने में बैठा थानेदार या दारोगा, एक आम आदमी के लिए निरंकुश सत्ता का प्रतिक होता है. जिसके सामने बोलना सता को ललकारने के समान है. इसलिए हाशिये पर बैठा कोई पीड़ित, डरा सहमा सा उसके सामने जाता है तो उसे अक्सर अपमानित कर के भगा दिया जाता है.
अब प्रश्न यह उठता है के हमारी पुलिस इतनी असंवेदनशील. गैरजिम्मेदार क्यों है. कारण तो बहुत हैं, जैसे प्रशिक्षण की कमी, भर्ती में भाई भतीजावाद, उच्चाधिकारियों-नेताओं का दबाव और सामाजिक समीकरण. लेकिन यहाँ मैं
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