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विजय दशमी

AKSHAR
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जलते-जलते भी रावण
अट्टाहस कर रहा था
अपनी हंसी से दुनिया
को चिढ़ा रहा था.

हर साल भेंट आग की
मुझे चढ़ाते हो
फिर भी पहले से प्रबल
मुझे पाते हो.

जल कर भी मैं
मिट नहीं पाता हूँ
हर मन में जीवन शक्ति
नित नई पाता हूँ.

अब दस नहीं
असंख्य शीश हस्त हैं
मेरे सामने सभी
कलयुगी राम पस्त हैं.

बाहर नहीं भीतर
मेरा वध जरुरी है .
मन में सुप्त सत्य को
जागृत करना जरुरी है.

न्याय, प्रेम, समानता के
बाणों का संधान करो
ना बच पाए अबके रावण
ऐसा तुम विधान करो.

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