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राहुल गाँधी का अध्यक्ष पद से त्यागपत्र

ravindrabhatnagar
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काँग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी लोकसभा मे निर्णायक हार के बाद अध्यक्ष पद से इस्तीफे पर अडे हुये है और मै समझता हूँ कि हाल के दिनों मे उनके राजनीतिक फैसलों मे ये सबसे उपयुक्त और समझदारी भरा फैसला है। पिछले पाँच सालों मे राहुल गाँधी ने अपनी छवि मे बहुत बडे परिवर्तन किये है। कुछ वर्ष पूर्व की अपनी  “पप्पू” की धारणा को उन्होने छिन्न- भिन्न करके एक समझदार और परिपक्व राजनेता की छवि बनाने का यत्न किया है। यह बात अलग है कि प्रधानमंत्री मोदी की विशालकाय छवि के सामने अभी उनका राजनीतिक भविष्य अनिश्चित है। लेकिन राजनीति मे कुछ भी सम्भव है । काँग्रेस को अखिल भारतीय स्तर पर स्थापित करने के लिये राहुल गाँधी को स्वयम्‌ अपने आप को स्थापित करना होगा और एक “नामदार” की छवि से मुक्त होकर एक कर्मठ और जुझारू नेता की भूमिका मे उतरना होगा। इसके लिये उन्हें जमीनी हक़ीकत का सामना करना आवश्यक है और ये तभी सम्भव है जब वे वंशवाद पर आधारित अध्यक्ष पद को उतार फैंके।

काँग्रेस वर्किंग कमेटी मे राहुल गाँधी ने जब काँग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को पुत्र प्रेम के लिये फटकार लगाई थी तो उसी समय यह भी साबित हो गया था कि राहुल को भी वंशवाद और पुत्रप्रेम की दागदार छवि से बाहर आने की आवश्यकता है। जिस तरह से राहुल गाँधी ने धीरे- धीरे अपनी “पप्पू” वाली छवि से मुक्ति पायी है , यह कहा जा सकता है कि इस वंशवाद की राजनीति से वे बाहर आ सकते है। ये सच्चाई है कि काँग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता जनता के साथ सीधा सम्पर्क खो चुके है और इसी का परिणाम है कि अनेक वरिष्ठ नेताओ को या तो स्वयम्‌ हार का मुख देखना पडा या उनके द्वारा प्रायोजित उनके पुत्रो को हार का सामना करना पडा है। काँग्रेस का संगठन कमजोर और व्यक्तिवादी होता जा रहा है। मै यहां आँकड़ों की बात नही कहता मगर ये सच है कि सिर्फ राहुल गाँधी की जी तोड मेहनत के बावजूद काँग्रेस का जन- आधार सिकुड़ गया है। इस सिकुडते जन- आधार का मूल कारण व्यक्तिवादी सोच और संगठन की कमजोरी ही है।

इन चुनावों मे एक बात और साफ दिखलाई पड रही है कि काँग्रेस का पूरा प्रचार नकारात्मक था। फिर चाहे आप “चौकीदार चोर है” या “राफेल” के मुआमले को ही ले ले। इन दोनो नारो का प्रचार सिर्फ राहुल गाँधी ने ही किया , बाकी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता गण इन नारों से दूर रहे। सम्भवत: उन नेताओ को भी इन नारों पर विश्वास नही था। यह भी वास्तिविकता है कि प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ इन नारों को जन- मानस ने स्वीकार नही किया था। राहुल भ्रष्टाचार के इन आरोपों को उतनी कुशलता से प्रचारित नही कर पाये जितना स्व वी पी सिंह ने स्व राजीव गांधी के विरूद्ध किये थे। वीं पीं सिंह छोटी और ग्रामीण सभायें आयोजित करते और उन सभाओं मे ये समझाने का प्रयास करते थे कि किस प्रकार सरकार उनके पैसे को सेना के हथियारों के दलालों के साथ मिलिभगत करके हड़प रही है। राहुल गाँधी के इन नारों मे स्पष्ट वादिता की कमी थी। “ चौकीदार चोर है” के नारे का सामना मोदी के  “ हम है चौकीदार” के जवाब ने चित्त कर दिया। इस के साथ राहुल गाँधी ये भी नही समझ पाये कि मोदी के राजनीतिक जीवन मे और चाहे कितने आरोप लगे हो, भ्रष्टाचार का आरोप तो उनके धुर विरोधी को भी सीधे सीधे स्वीकार्य नही होगा तब उनके समर्थकों को कैसे होता।

काँग्रेस अध्यक्ष ने जनता के बीच बेरोजगारी, नोटबंदी की परेशानियों , जी एस टी की समस्याओं और किसानों और महिलाओं की समस्याओ को उठाया था, लेकिन ये सभी मुद्दे “ चौकीदार चोर है” के नारे मे गौण होकर रह गये। ये सब वे मुद्दे थे जिन पर मोदी को जवाब देना भारी पडता था। “चौकीदार चोर है” के नारे ने तो राहुल गाँधी को आत्ममुग्ध कर दिया था। पत्रकारों के बीच वे यह दिखलाते थे कि किस प्रकार वे चौकीदार बोलेंगे और जनता चोर है कह कर जवाब देगी।  ये देखा गया था कि बेरोजगारी, नोटबंदी और जी एस टी जैसे  सवालों को मोदी जी स्वयम्‌ और उनके स्टार प्रचारक उठाने से दूर भागते थे। सच्चाई भी है कि मोदी सरकार इन क्षेत्रों मे पिछ्ड गयी थी और इसी लिये उनके प्रचार की मुख्य धूरी राष्ट्रवाद , और पाकिस्तान के विरूद्ध की गयी सर्जिकल स्ट्राइक पर आधारित थी। मोदी जी ने किसी भी जन सभा मे इन आर्धिक मुद्दो को आधार नही बनाया। उनका मुख्य केंद्र राष्ट्रवाद रहा जिस मे अग्नि का काम काँग्रेसी नेताओं के ब्यान ने किया। जब – जब वे सर्जिकल स्ट्राइक को संदेह की निगाह से देखते और ब्यान देते, मोदी जी और उनके प्रचारक इस मुद्दे को देश- द्रोह के दायरे मे लाकर प्रचारित करते थे। फिर कुछ काँग्रेसी नेता बडबोले पन मे मोदी को गाली निकालते दिखलाई दिये और मोदी जी ने इसका भरपूर फायदा उठाया। प्रियंका गाँधी वाडरा का दुर्योधन वाला ब्यान, मणि शंकर अय्यर का नीच वाला ब्यान और सैम पित्रोदा का “हुआ तो हुआ” वाला ब्यान जैसे अनेक ब्यानो मे मोदी जी को मुद्दे प्रदान कर दिये जिससे वे आर्थिक कमजोरियों से जनता का ध्यान भटकाने मे सफल हो गये।

अब चुनावों मे इस बुरी तरह पराजित होने के बाद काँग्रेस और राहुल गाँधी दोनो के पास बहुत कुछ खोने के लिये नही है , तो फिर उन्हें कठोर और साहसिक निर्णय लेने चाहिये और इस चुनाव की समीक्षा निक्षपक्ष होकर करनी चाहिये। ऐसी समीक्षा तभी सम्भव है जब राहुल चाटुकार नेताओं की मंडली से बाहर आकर जनता के बीच जाये और वास्तविक भारत के दर्शन करें । काँग्रेस अध्यक्ष पद से छुटकारा इसके लिये अति आवश्यक है , वरना राहुल गाँधी कुछ मुठ्ठी भर नेताओं के दिखलाये जा रहे भ्रम जाल से भ्रमित होकर सही निर्णय नही कर पायेंगे।

 

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