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वोट आ चुका है,
अब वो संग्राम की,
घड़ी आ पहुंची है l
शहर से ग्राम की ओर,
हर कोई रिस्तेदार आ चुके है ll
अपने मतों को सवारने की गड़ी,
अब तो करीब आ गई है l
इन दिनों अपने नेताओं के,
साधा-सीधा, रंग-रूप,आस-पास का,
मौका अब देखने का,
अब हमें जो मिला है ll
जिन नेताओं ने थूके जैसे थे,
मुँह पर जनता के,
आज यहीं जनताओ के बीच,
थूके हुए मुँह को पोंछने आ पहुंचे है ll
इस दिन की इंतजार मे,
रात की नींद, चैन-बेचैन,
उन सब नेताओं की,
हराम हो चुकी है l
न जाने इन कुछ दिनों मे,
ब्यापार हुए अगले पांच साल के,
कोई पांचसौ तो कोई करोड़ो
किस्मत मे कमाए-आजमाऐ है l
वे ब्यापार है…आर-पार का,
पैसा का ,धर्म का,जात-पात का,
ये कुछ दिन क्यों नहीं कटती,
धुआँ फ़ैल रहा चारो ओर,
आग लगी है या लगा दी गई है,
तालाब देखो, नदी देखो,
लगी आग चारो ओर है l
दंगे फैला चारो ओर,
समझ हमें आती,
इन दिनों हमारे हिन्दू-मुस्लिम भाई,
एक-दूसरे से अलग-थलग से क्यों है !
खुश जो थे तब बहुत हम,
अपने तो मेरे साथ थे l
अब वोट की इस घड़ी मे,
हमें अपनों से जुदा कर रखा है ll
मतदाता लोकतंत्र की रीढ़ है प्रधान
इनसे ही तो चलती हमारी संविधान l
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