प्राचीनकाल में आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म को विस्तार रूप देने के लिए चार मठों की स्थापना का फैसला किया। इन मठों के जरिए अलग अलग पंथों में विभाजित सनातन धर्म को एकीकृत करने का काम किया गया। आदि शंकराचार्य की जयंती के मौके पर जानते हैं कैसे चुने जाते हैं इन मठों में शंकराचार्य और क्या हैं सिद्धपीठों की महत्ता।
आदि शंकराचार्य की जन्म कथा
शंकराचार्य की प्रचलित कथाओं के अनुसार केरल के काषल गांव के ब्राह्मण परिवार में शंकर नामक बालक का जन्म हुआ। शंकर के पिता शिवगुरु भट्ट और माता सुभद्रा को भगवान शिव की लंबे समय तक आराधना करने के बाद पुत्र प्राप्त हुआ था। उनका मानना था कि भोलेनाथ के वरदान से ही उन्हें पुत्र मिला है इसलिए उसका नाम शंकर रखा गया। दस्तावेजों में आदि शंकराचार्य का जन्म 788 ईस्वीं में दर्ज है।
सनातन धर्म का एकीकरण
6 वर्ष की उम्र में ही शंकर प्रकांड पंडित और 8 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ने वाले आदि शंकराचार्य को भारत भ्रमण के दौरान सनातन धर्म कई रूपों में विभाजित मिला। इस पर शंकराचार्य ने इसे एकीकृत करने का निश्चय कर लिया। इसी के फलस्वरूप शंकराचार्य ने भारतवर्ष के चार कोनों में चार मठों की नींव रखी। ये मठ पूर्व भारत के उड़ीसा में गोवर्धनमठ, पश्चिम में गुजरात का शारदामठ, उत्तर में उत्तराखंड में ज्योर्तिमठ, दक्षिण में तमिलनाडु में श्रंगेरीमठ के नाम से जाने जाते हैं।
चार मठों की स्थापना
चारों दिशाओं में स्थापित इन मठों में गुरु शिष्य परंपरा का निर्वहन किया जाता है। इन मठों में सन्यासियों को सनातन धर्म की दीक्षा दी जाती है। ये सन्यासी धर्म और संस्कृति के प्रचार के लिए भारत भ्रमण करते हैं। भ्रमण से पूर्व सभी सन्यासियों के नाम के आगे दीक्षा विशेषण लगाया जाता है। इस विशेषण से पता चलता है कि सन्यासी किस मठ से है ओर वेद की किस परंपरा का पालन करता है।
ऐसे चुने जाते हैं मठों के शंकराचार्य
ऐसा माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने चारों मठों की स्थापना के वक्त ही मठ के प्रमुखों के चयन की नीति स्पष्ट कर दी थी। चारों मठों के प्रमुखों को मठाधीश और शंकराचार्य के नाम से जाना जाता है। चयन की नीति के अनुसार मठ के शीर्ष प्रतिभावान सन्यासी को ही शंकराचार्य की उपाधि हासिल होती है। मौजूदा शंकराचार्य अपने जीवनकाल में ही सबसे योग्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी और अगला शंकराचार्य घोषित कर देता है।…Next
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