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वैवाहिक जीवन की सफलता छुपी है इन मंत्रों में, जानिए क्यों आपके विवाह पर पढ़े जाते हैं ये मंत्र

हिंदू विवाह जैसे शुभ अवसरों की शुरूआत मंत्रोच्चारण के साथ करते हैं. सुख, शांति, समृद्धि और विश्व-कल्याण की कामना करते हुए इन मंत्रोच्चारण से विवाह सम्पन्न कराए जाते हैं. इस अवसर पर वर-वधू सदा साथ रहकर खुशहाल जीवन व्यतीत करने की कामना करते हैं. जानिए शादी के समय वर-वधू द्वारा उच्चारित किए जाने वाले ये विशेष मंत्र…..



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वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ:

निर्विघ्नं कुरूमेदेव शुभ कार्येषु सर्वदा

विशाल शरीर और वक्र सूँड़ वाले, मुखमंडल पर सहस्त्रों सूर्यों का तेज धारण करने वाले हे ईश्वर! मेरे सभी अच्छे कार्यों को सदा बाधामुक्त करना. हिंदू धर्म में किसी भी शुभ कार्य से पहले उसकी सफलता के लिए इस मंत्र का उच्चारण किया जाता है.


इहेमाविन्द्र सं नुद चक्रवाकेव दम्पति ।

प्रजयौनौ स्वस्तकौ विस्वमायुर्व्यअशनुताम् ॥

अथर्ववेद से लिए गए इस मंत्र का आशय है कि हे इंद्र देव! तुम इस जोड़ी को चक्रवाकेव पक्षी के जोड़े के समान सदा साथ और प्रसन्नचित रखना.


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धर्मेच अर्थेच कामेच इमां नातिचरामि ।

धर्मेच अर्थेच कामेच इमं नातिचरामि ॥

विवाह कर्मकांड में वर्णित इस श्लोक का अर्थ है कि ‘मैं(वर-वधू दोनों) अपने हर कर्तव्य, आवश्यकताओं में तुमसे सलाह लूँगा और उसके अनुरूप ही कार्य करूँगा.’ ये मंत्र बारी-बारी से वर और वधू द्वारा उच्चारित किया जाता है.



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गृभ्णामि ते सुप्रजास्त्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः ।

भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यांत्वादुः गार्हपत्याय देवाः ॥

विवाह कर्मकाण्ड से लिए गए इस मंत्र का अर्थ है कि ‘’मैंने तुम्हारा हाथ थामा है और कामना करता हूँ कि हमारी संतान यशस्वी और हमारा बंधन अटूट हों. भगवान इंद्र, वरूण और सावित्री के आशीर्वाद और तुम्हारे सहयोग से मैं एक आदर्श गृहस्थ बन सकूँ.’’ वर को इस मंत्र का उच्चारण करना पड़ता है.


सखा सप्तपदा भव ।

सखायौ सप्तपदा बभूव ।

सख्यं ते गमेयम् ।

सख्यात् ते मायोषम् ।

सख्यान्मे मयोष्ठाः ।

इस मंत्र का उच्चारण वर को करना पड़ता है. इसका अर्थ है ‘तुमने मेरे साथ मिलकर सात कदम चला है इसलिए मेरी मित्रता ग्रहण करो. हमने साथ-साथ सात कदम चले हैं इसलिए मुझे तुम्हारी मित्रता ग्रहण करने दो. मुझे अपनी मित्रता से अलग होने मत देना.


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धैरहं पृथिवीत्वम् ।

रेतोअहं रेतोभृत्त्वम् ।

मनोअहमस्मि वाक्त्वम् ।

सामाहमस्मि ऋकृत्वम् ।

सा मां अनुव्रता भव ।

इस मंत्र का आशय है कि ‘मैं आकाश हूँ और तुम धरा. मैं उर्जा देता हूँ और तुम उसे ग्रहण करती है. मैं मस्तिष्क हूँ और तुम शब्द. मैं संगीत हूँ और तुम गायन. तुम और मैं एक-दूसरे का अनुसरण करते हैं. यह वर के द्वारा उच्चारित किया जाता है.’


गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्थासः ।

भगो अर्यमा सविता पुरंधिर्मह्यं त्वादुर्गार्हपत्याय देवाः ॥

ऋग्वेद से लिए गए इस मंत्र का आशय है कि सवितृ, पुरंधि आदि के आशीर्वाद से मुझे तुम्हारे जैसी भार्या मिली है. मैं तुम्हारे दीर्घ आयु की कामना करता हूँ. Next……




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