कहते हैं प्यार और विश्वास में बहुत ताकत होती है. निश्छल प्रेम किसी के लिए भी सुरक्षा कवच का काम करता है. ऐसे में जब बात हो किसी के प्राणों की रक्षा की, तो विश्वास के रूप में बांधा गया धागा भी दिव्य कवच का रूप धारण कर लेता है. प्यार और विश्वास का ऐसा ही सूत्र इंद्र की पत्नी इन्द्राणी ने अपने पति के हाथों में बांधा था. इस विषय में लोग ये भी कहते हैं कि इन्द्राणी के द्वारा अपने पति के हाथ में रक्षासूत्र बांधने के बाद ही रक्षाबंधन की शुरुआत हुई थी. लेकिन बदलते समय के साथ अब बहनों द्वारा भाइयों की कलाई में रक्षाबंधन यानी राखी बांधी जाने लगी.
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रक्षाबंधन का इतिहास हिंदू पुराण कथाओं में है. वामनावतार नामक पौराणिक कथा में रक्षाबंधन का एक अनोखा प्रसंग मिलता है. एक बार राजा इन्द्र की राक्षसों से लड़ाई छिड़ गई. लड़ाई कई दिनों तक होती रही। न राक्षस हार मानते थे, न इन्द्र जीतते दिखाई देते थे. इन्द्र बड़ी सोच में पड़ गए. वह अपने गुरु बृहस्पति के पास आकर बोले, ‘गुरुदेव, इन राक्षसों से मैं न जीत सकता हूं न हार सकता हूं. न मैं उनके सामने ठहर सकता हूं न भाग सकता हूं. इसलिए मैं आपसे अंतिम बार आशीर्वाद लेने आया हूं. अगर अबकी बार भी मैं उन्हें हरा न सका तो युद्ध में लड़ते- लड़ते वहीं प्राण दे दूंगा. उस समय इन्द्राणी भी पास बैठी हुई थीं.
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इन्द्र को घबराया हुआ देखकर इन्द्राणी बोलीं, ‘पतिदेव, मैं ऐसा उपाय बताती हूं जिससे इस बार आप अवश्य लडाई में जीतकर आएंगे. इसके बाद इन्द्राणी ने गायत्री मंत्र पढ़कर इन्द्र के दाहिने हाथ में एक धागा बांध दिया और कहा, पतिदेव यह रक्षाबंधन मैं आपके हाथ में बांधती हूं. आप इस रक्षा-सूत्र को पहन कर एक बार फिर युद्ध में जाएं. इस बार अवश्य ही आपकी विजय होगी.
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इन्द्र अपनी पत्नी की बात को गांठ बांधकर और रक्षाबंधन को हाथ में बंधवाकर चल पड़े. इस बार लड़ाई के मैदान में इन्द्र को ऐसा लगा जैसे वह अकेले नहीं लड़ रहे बल्कि इन्द्राणी भी कदम से कदम मिलाकर उनके साथ लड़ रही हैं. उन्हें ऐसा लगा कि रक्षाबंधन सूत्र का एक-एक तार ढाल बन गया है और शत्रुओं से उनकी रक्षा कर रहा है. इन्द्र जोर-शोर से लड़ने लगे. इस बार सचमुच इन्द्र की विजय हुई. मान्यता है कि तब से रक्षाबंधन का त्यौहार चल पड़ा…Next
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