सभी मंदिरों और पवित्र स्थानों से जुड़ी कई कहानियां होती हैं, यही प्रचलित गाथाएं आगे चलकर भक्तों को उन स्थानों तक लाने के लिए प्रभावित करती हैं। ऐसा ही एक स्थान है पुरी का जगन्नाथ मंदिर। इस प्रसिद्ध मंदिर से जुड़ी भी एक कथा बहुत प्रचलित है। एक बहुत प्रचलित कथा के अनुसार माता यशोदा, देवकी जी और उनकी बहन सुभद्रा वृन्दावन से द्वारका आईं। उनके साथ मौजूद रानियों ने उनसे निवेदन किया कि वे उन्हें श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं के बारे में बताएं। इस बात पर माता यशोदा और देवकी उन रानियों को लीलाएं सुनाने के लिए राज़ी हो गई। उनकी बातों को कान्हा और बलराम सुन ना लें इसीलिए माता देवकी की बहन सुभद्रा बाहर दरवाजे पर पहरा देने लगीं। माता यशोदा ने कृष्ण की लीलाओं की गाथा आरंभ की और जैसे-जैसे वो बोलती चली गईं सब उनकी बातों में मग्न होते गए। खुद सुभद्रा भी पहरा देने का ख्याल भूलकर उनकी बातों सुनने लगीं। इस बीच कृष्ण और बलराम दोनों वहां आ गए और इस बात की किसी को भनक नहीं हुई, सुभद्रा भी इतनी मग्न थीं कि उन्हें पता ना चला कि कान्हा और बलराम कब वहां आ गए।
भगवान कृष्ण और भाई बलराम दोनों भी माता यशोदा से मुख से अपनी लीलाओं को सुनने लगे। अपनी शैतानियों और क्रियाओं को सुनते-सुनते उनके बाल खड़े होने लगे, आश्चर्य की वजह से आंखे बड़ी हो गईं और मुंह खुला रह गया। वहीं, खुद सुभद्रा भी इतनी मंत्रमुग्ध हो गईं कि प्रेम भाव में पिघलने लगीं। यही कारण है कि जगन्नाथ मंदिर में उनका कद सबसे छोटा है। सभी कृष्ण जी लीलाओं को सुन रहे थे कि इस बीच यहां नारद मुनि आ गए।
नारद जी सबके हाव-भाव देखने लगे ही थे कि सबको अहसास हुआ कि कोई आ गया है। इस वजह से कृष्ण लीला का पाठ यहीं रुक गया। नारद जी ने कृष्ण जी के उस मन को मोह लेने वाले अवतार को देखकर कहा कि ‘वाह प्रभु, आप कितने सुन्दर लग रहे हैं। आप इस रूप में अवतार कब लेंगे?’ उस वक्त कृष्ण जी ने कहा कि वह कलियुग में ऐसा अवतार लेगें।
वादे के अनुसार कलियुग में श्री कृष्ण ने राजा इन्द्रद्युम्न के सपने में आए और उनसे कहा कि वह पुरी के दरिया किनारे एक पेड़ के तने में उनका विग्रह बनवाएं और बाद में उसे मंदिर में स्थापित करा दें। श्रीकृष्ण के आदेशानुसार राजा ने इस काम के लिए काबिल बढ़ई की तलाश शुरू की। कुछ दिनों में एक बूढ़ा ब्राह्मण उन्हें मिला और इस विग्रह को बनाने की इच्छा जाहिर की। लेकिन इस ब्राह्मण ने राजा के सामने एक शर्त रखी कि वह इस विग्रह को बन्द कमरे में ही बनाएगा और उसके काम करते समय कोई भी कमरे का दरवाज़ा नहीं खोलेगा नहीं तो वह काम अधूरा छोड़ कर चला जाएगा।
शुरुआत में काम की आवाज़ आई लेकिन कुछ दिनों बाद उस कमरे से आवाज़ आना बंद हो गई। राजा सोच में पड़ गया कि वह दरवाजा खोलकर एक बार देखे या नहीं। कहीं उस बूढ़े ब्राह्मण को कुछ हो ना गया हो। इस चिंता में राजा ने एक दिन उस कमरे का दरवाज़ा खोल दिया। दरवाज़ा खुलते ही उसे सामने अधूरा विग्रह मिला। तब उसे अहसास हुआ कि ब्राह्मण और कोई नहीं बल्कि खुद विश्वकर्मा थे, शर्त के खिलाफ जाकर दरवाज़ा खोलने से वह चले गए।
उस वक्त नारद मुनि पधारे और उन्होंने राजा से कहा कि जिस प्रकार भगवान ने सपने में आकर इस विग्रह को बनाने की बात कही ठीक उसी प्रकार इसे अधूरा रखने के लिए भी द्वार खुलवा लिया। राजा ने उन अधूरी मूरतों को ही मंदिर में स्थापित करवा दिया। यही कारण है कि जगन्नाथ पुरी के मंदिर में कोई पत्थर या फिर अन्य धातु की मूर्ति नहीं बल्कि पेड़ के तने को इस्तेमाल करके बनाई गई मूरत की पूजा की जाती है।
इस मंदिर के गर्भ गृह में श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलभद्र (बलराम) की मूर्ति विराजमान है। कहा जाता है कि माता सुभद्रा को अपने मायके द्वारिका से बहुत प्रेम था इसलिए उनकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा जी ने अलग रथों में बैठकर द्वारिका का भ्रमण किया था। तब से आज तक पुरी में हर वर्ष रथयात्रा निकाली जाती है।…Next
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