न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो-+
न चाहानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथा:।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम्।।
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हे माँ! मैं न मंत्र जानता हूँ और न ही यंत्र. मुझे तो आपकी स्तुति का भी ज्ञान नहीं है. ना आह्वान का पता है और न ही ध्यान का. आपकी स्तुति और कथा की भी जानकारी मुझे नहीं है. मैं ना तो तुम्हारी मुद्राएँ जानता हूँ और न ही मुझे व्याकुल होकर विलाप करना ही आता है. परंतु, एक बात जानता हूँ कि केवल तुम्हारा अनुसरण करने से ही तुम मेरी सारी विपत्ति और क्लेशों को दूर कर दोगी.
विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत् ।
तदेतत् क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणी शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।
सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता! मैं आपको पूजने की विधि नहीं जानता. मेरे पास धन का भी अभाव है. मैं स्वभाव से ही आलसी हूँ तथा मुझसे ठीक-ठीक पूजा का सम्पादन हो भी नहीं सकता. इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में मुझसे जो भी त्रुटि रह गयी हो उसे क्षमा करना क्योंकि इस संसार में पुत्र कुपुत्र हो सकता है किंतु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती.
पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहव: सन्ति सरला:
परं तेषां मध्ये विरलतरलोअहं तव सुत:।
मदीयोअयं त्याग: समुचितमिदं नो तव शिवे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।
माँ इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे-सादे पुत्र तो बहुत से हैं, किंतु उन सबमें मैं ही तुम्हारा बालक हूँ जो अत्यंत चपल है. मेरे जैसा चंचल कोई विरला ही होगा. शिवे मेरा जो यह त्याग हुआ है यह तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना तो सम्भव है परंतु माता कभी कुमाता नहीं होती.
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श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातंड़्को रड़्को विहरति चिरं कोटिकनकै: ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
जन: को जानीते जननि जपनीय जपविधौ।।
माता अपर्णा तुम्हारे मंत्र का एक अक्षर भी कान में पड़ जाय तो उसका फल यह होता है कि मूर्ख चाण्डाल भी मधुपाक के समान मधुर वाणी का उच्चारण करनेवाला उत्तम वक्ता हो जाता है, दीन मनुष्य भी करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं से सम्पन्न हो चिरकाल तक निर्भय होकर विहार करता रहता है. अगर मंत्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जप में लगे रहते हैं उनके जप से प्राप्त होनेवाला फल कैसा होगा. इसको कौन मनुष्य जान सकता है.
मत्सम: पातकी नास्ति पापघ्नी त्वसमा न हि।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरू।।
महादेवी! मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई पापहारिणी नहीं है. यह समझ कर तुम जैसा उचित समझो वैसा करो.
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